नूतन प्रसाद
आज दिवाली है. हमने इसे नहीं बुलाया,फिर भी आ गई. हम जिसे आमंत्रित करते
हैं वह आता ही नहीं. कहते हैं अच्छी फसल हो पर अकाल आ धमकता है. हम शान्ति
चाहते हैं तो युद्ध के बादल छा जाते हैं. यदि दिवाली आ ही गई तो चुपचाप
चली जाये पर यह सत्यानाश किये बिना लौटेगी नहीं. व्यर्थ खर्च करना पड़ेगा.
पटाखों से लोगो को मरना होगा. भारतीय त्यौहारों में हिन्सक घटनाएं न घटे तो
अशुभ माना जाता है. गतवर्ष बुरी खबर नहीं मिली थी तो आनंद पाने से वंचित
रह गए. दीपावली जैसे प्रमुख त्यौहार में दीवाला न निकले तो मजा किरकिरा हो
जायेगा. जुआ खेलना पड़ेगा. अगर न खेले तो छछूंदर बन जाये. जुआ आदि काल से
खेला जा रहा है.
यद्यपि राज्य जनता का होता है फिर भी युधिष्ठिर उसे दांव पर लगा
गये. उनके ही एक अनुयायी एक मंत्री देश को दांव पर लगाने के लिए संकल्प लिए
बैठे हैं. हमने सुना तो उनसे कहा - '' एवमस्तु , आपकी इच्छा पूरी हो. यही नहीं
हम आपकी जीवनी भी लिखेगे. और प्रजापालन के रुप में इतिहास में स्थान
दिलायेंगे.''
यह नियम पहले से ही चला आ रहा है. अत्याचारी की पूजा की जाती है पर देश के लिए कुर्बानी देने वालों को कोई पूछता भी नहीं. राम लंका विजय कर चुके थे. इसकी खुशी में वे पुरस्कार वितरण कर रहे थे. इसी बीच एक गिलहरी आयी. उसने राम से कहा - '' प्रभु पुल के निर्माण में मेरा भी हाथ था. मुझे भी कुछ मिलना चाहिए.''
राम ने उपेक्षा भरी नजरों से देखे बोले - '' झूठी कहीं की, पुल को तो नल - नील जैसे बड़े इंजीनियरों ने बनाया था. इसके लिए उनकी पदोन्नति भी कर दी गई है.''
- '' मैं झूठ नहीं कह रही. आपने मेरे परिश्रम से प्रसन्न होकर मुझे स्नेह भी दिया था.''
- '' मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा. मस्टररोल में नाम होता तो भी पहचान लेता. तुम मुझे धोका देने आयी हो. भाग जाओ वरना चार सौ बीसी के अपराध में बन्द कर दिये जाओगी.'' बेचारी गिलहरी चुपचाप वापस हो गई.
ऐसा आज भी होता है. जिस नेता को हम चुनावी पुल से पार कराते हैं वह हमारा उपकार मानता है क्या ? पुरस्कार तो बड़े अधिकारी और चमचे ही पाते हैं. जब दीपोत्सव है तो दीपक जलाने की परम्परा को बनाये रखना पड़ेगा. परम्पराओं को आंख मूंद कर स्वीकार कर लेना हमारा नैतिक धर्म है. हमें मालूम है कि दहेज प्रथा क्रूर अमानवीय है लेकिन वह परम्परा है. इसलिए उसे बनाये रखेगे. चाहे उसके नाम से बहुओं को आग में झोंकना ही क्यों न पड़े.
यह नियम पहले से ही चला आ रहा है. अत्याचारी की पूजा की जाती है पर देश के लिए कुर्बानी देने वालों को कोई पूछता भी नहीं. राम लंका विजय कर चुके थे. इसकी खुशी में वे पुरस्कार वितरण कर रहे थे. इसी बीच एक गिलहरी आयी. उसने राम से कहा - '' प्रभु पुल के निर्माण में मेरा भी हाथ था. मुझे भी कुछ मिलना चाहिए.''
राम ने उपेक्षा भरी नजरों से देखे बोले - '' झूठी कहीं की, पुल को तो नल - नील जैसे बड़े इंजीनियरों ने बनाया था. इसके लिए उनकी पदोन्नति भी कर दी गई है.''
- '' मैं झूठ नहीं कह रही. आपने मेरे परिश्रम से प्रसन्न होकर मुझे स्नेह भी दिया था.''
- '' मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा. मस्टररोल में नाम होता तो भी पहचान लेता. तुम मुझे धोका देने आयी हो. भाग जाओ वरना चार सौ बीसी के अपराध में बन्द कर दिये जाओगी.'' बेचारी गिलहरी चुपचाप वापस हो गई.
ऐसा आज भी होता है. जिस नेता को हम चुनावी पुल से पार कराते हैं वह हमारा उपकार मानता है क्या ? पुरस्कार तो बड़े अधिकारी और चमचे ही पाते हैं. जब दीपोत्सव है तो दीपक जलाने की परम्परा को बनाये रखना पड़ेगा. परम्पराओं को आंख मूंद कर स्वीकार कर लेना हमारा नैतिक धर्म है. हमें मालूम है कि दहेज प्रथा क्रूर अमानवीय है लेकिन वह परम्परा है. इसलिए उसे बनाये रखेगे. चाहे उसके नाम से बहुओं को आग में झोंकना ही क्यों न पड़े.
दुष्यन्त ने शकुन्तला से प्रेम विवाह किया. कुछ दिन तक दाम्पत्य
जीवन बिताने के बाद उसने पत्नी को छोड़ दिया और राजधानी लौट गया. वहां भी
दूसरी पत्नी रही होगी तभी तो शकुन्तला को याद तक नहीं की. एक दिन कण्व
दुष्यन्त के पास पहुंचे. बोले - '' मेरी बेटी को अपने पास क्यों नहीं रखते ?''
दुष्यंत ने प्रति प्रश्न किया - '' आपने दहेज क्यों नहीं दिया ?''
- '' मैं गरीब आदमी कहां से दहेज दूं.''
- '' नहीं है तो लड़की अपने पास रखिए. मैं दहेज देने वाले हजारों श्वसुर ढूंढ लूंगा.''
- '' मेरी लड़की के रहते दूसरी शादी कैसे कर लोगे ? शकुन्तला को अपने पास रखना होगा.''
- '' रख तो लूंगा पर स्टोव में आपकी लड़की जलेगी तो जिम्मेदारी मेरी नहीं होगी.'' यह स्टोव वर पक्ष का बड़ा मददगार है. इसने अनेकों बहुओं को मृत्युदान करके अपनी स्वामीभक्ति दिखाई है. यह स्वयं बदनाम हुआ पर दामाद और उसके मां बाप की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने दी. एक बार भी दामाद और उसके परिवारजनों को जिंदा जलाता. जैसा स्टोव वैसा दीपक. हमारे पास खाने के लिए तेल नहीं है तो भी दीपक जलायेंगे.
- '' मैं गरीब आदमी कहां से दहेज दूं.''
- '' नहीं है तो लड़की अपने पास रखिए. मैं दहेज देने वाले हजारों श्वसुर ढूंढ लूंगा.''
- '' मेरी लड़की के रहते दूसरी शादी कैसे कर लोगे ? शकुन्तला को अपने पास रखना होगा.''
- '' रख तो लूंगा पर स्टोव में आपकी लड़की जलेगी तो जिम्मेदारी मेरी नहीं होगी.'' यह स्टोव वर पक्ष का बड़ा मददगार है. इसने अनेकों बहुओं को मृत्युदान करके अपनी स्वामीभक्ति दिखाई है. यह स्वयं बदनाम हुआ पर दामाद और उसके मां बाप की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने दी. एक बार भी दामाद और उसके परिवारजनों को जिंदा जलाता. जैसा स्टोव वैसा दीपक. हमारे पास खाने के लिए तेल नहीं है तो भी दीपक जलायेंगे.
हमें
देश की आर्थिक स्थिति की कतई चिंता नहीं. कई स्थानों में अखण्ड ज्योति जल
रही है. यज्ञों में घी स्वाहा हो रहे हैं तो हम भी पीछे रहकर धर्म विमुख
नहीं कहलाना चाहते. कोई इस पर प्रश्न करना चाहेगा तो हम कह देंगे - '' ईश्वर की
वस्तु को ही समर्पित कर रहे हैं.'' माटी का दीया अपने मालिक यानि खरीददार के
हित के लिए बलि चढ़ जाता है. उसके बनाने वाले कारीगर के घर अंधेरा रहता है
पर खरीददार का घर जगमगाता है. यह वही बात हुई कि अन्न उपजाने वाला कृषक
मरियल रहता है और अन्न को जूते में रगड़ने वाले व्यापारी का स्वास्थ्य
उत्तम रहता है. हम भी चाहते हैं कि स्वस्थ रहे. बलवान बनकर कमजोरों पर
अत्याचार करें पर लक्ष्मी के अभाव में हमारी इच्छाओं पर बुलडोजर चल जाता
है.
'' ॐ श्री कमले कमलाले प्रसीद, श्रीं हींश्री महालक्ष्म्यै नमः '' पर
लक्ष्मी हम पर कृपा दृष्टि फेंकती ही नहीं. दीवालों पर '' शुभ - लाभ '' लिखते हैं
पर न शुभ होता है न लाभ. हमने लक्ष्मी को खिलाने के लिए प्रसाद बनवाया है.
शक्कर ब्लेक का है या उधारी,इसे बताने बाध्य नहीं है. पर इतना अवश्य बता
देते हैं कि पत्थर मिट्टी और कागजों पर बने देवी -देवताओं को भोग चढ़ाते
हैं लेकिन कोई भूखा व्यक्ति आ जाये तो उसे दुत्कार देते हैं. लक्ष्मी
समुद्र की पुत्री है. समुद्र के गर्भ से जितने भी रत्न निकलते हैं वे
धनवानों के पास चले जाते हैं तो लक्ष्मी भी क्यों गरीबों के घर जाये. हम
उसकी प्रतीक्षा तीव्रता से करते हैं पर वह हमारे दरवाजे के आगे से निकलकर
दूसरों घरों में चली जाती है. हमने पता लगाया तो मालूम हुआ कि उल्लू
लक्ष्मी को दिग्भ्रमित कर देता है इसका अर्थ यह हुआ कि वह दोनों को जनता से
दूर रखकर स्वयं सत्ता का उपभोग करना चाहता है.
अरे, उल्लुओं के इशारे से शासन चल भी तो रहा है. हाय , हम न उल्लू बन
सके न उल्लू के पट्ठे . और तो और डाकू बनने से भी रह गये . डाकू होते तो
गांव जलाते, लूटपाट करते और मुख्यमंत्री के सामने आत्म समर्पण कर देते.
हमारे मुख्यमंत्री बड़ सह्दय एवं न्यायी हैं. वे बड़े से बड़े अपराध को
क्षमा कर देते हैं. हमसे एक छोटी सी गलती हो गई. इसके लिए क्षमा मांगा तो
उन्होंने कहा कि इतने विशाल प्रांत के मुख्यमंत्री से छोटी सी गलती के लिए
क्षमा मांगते शर्म नहीं आती. यदि क्षमा मांगनी ही है तो जघन्य अपराध करो.
अब हम सोच रहे हैं कि जघन्य अपराध कर अपने साहस का परिचय दे ही दे. इसके
लिए दीवाली से बढ़कर अवसर और कब मिलेगा. तो हम चलते है अपना संकल्प पूरा
करने पर कौन सा सुकर्म करेंगे यह नहीं बतायेंगे. लेकिन मुख्यमंत्री के
सामने आत्म समर्पण करेंगे तो हमारा परिचय सबको प्राप्त हो ही जायेगा.
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