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मंगलवार, 5 जनवरी 2016

मैनेजर लीला

नूतन प्रसाद

          हमारे गांव वाले कम श्रद्धालू नहीं हैं. उस साल जब अच्छी फसल हुई तो ईश्वर ने कृपा की,ऐसा सोच रामलीला मंडली को बुलवाया. मंडली वालों ने आकर ऐसा जीवंत खेल खेला कि पूरा गांव राम मय हो गया. अंतिम दिन ग्रामीणों में चढ़ौत्री चढ़ाने की होड़ लग गयी. बहुतों ने विभोर हो एक जून का राशन रख, बाकी सर्वस्व भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया. इधर चढ़ौत्री का कार्यक्रम समाप्त हुआ. उधर रामलीला के पात्रों की बैठक प्रारंभ हो गयी. यह बैठक मैनेजर के शोषण के विरुद्ध हो रही थी. राम और रावण दोनों दलों के लोग गंभीर मुद्रा में बैठे थे कि राम ने मौन तोड़ा - जब हम मर - मर कर कमाते है तो हमें भी बराबर हिस्सा मिलना चाहिए लेकिन मैनेजर हमें अधिकारों से वंचित कर देता हैं. यही नहीं जो वेतन बंधा है उसे भी पूरा नहीं देता.''
          रावण ने साथ दिया - हां भैय्या राम, मैनेजर पूरा राक्षस है. अभी ही देखो न- भण्डारपुर वालों ने कितनी तगड़ी चढ़ौत्री की उसे मैनेजर ने अपने पास रख लिया मानों सिर्फ उसका ही पसीना गिरा है. हमें छूने तक नहीं दिया'' सीता ने कहा  - '' मुझे डेढ़ सौ रुपये मासिक वेतन देने का आश्वासन देकर लाया है . तीन महीने यूं ही निकल गये. बहुत विनती की तो मात्र साठ रुपये ही मिले.'' हनुमान ने कहा  - '' तुम्हें कुछ मिले तो! मेरी स्थिति और भी गंभीर है. पत्नी की चिट्ठी आयी है कि मुन्ना बीमार है. उसके उपचार के लिए रुपये भेजो. मैनेजर को पत्र दिखाया तो उसने फेंक दिया.'' कुम्भकर्ण - '' रात - रात भर जागने के कारण मेरी आंखें खराब हो गयी. चश्मा खरीदने के लिए रुपये मांगे तो दुत्कार दिया. समझ नहीं आता क्या करुं ?''
          इसी प्रकार सभी पात्रों ने अपने - अपने दुखड़े रोये लेकिन उनकी करुण आवाज का श्रोता कोई नहीं था. सुग्रीव ने कहा - '' रोने से काम नहीं बनने वाला. अधिकार प्राप्ति के लिए कुछ न कुछ उपाय करना होगा.'' जनक - '' हां, मैनेजर के पास अपनी मांग रखी जाये. देखे तो क्या कहता है.'' मेघनाथ - '' उससे बोलें कि वह हमारा वेतन बढ़ाये और ठीक समय पर दे.'' विभीषण - '' अगर इंकार दिया तो. . .?'' लक्ष्मण - '' चढ़ौत्री छीन ले. . . ।'' दोनों दल मैनेजर से लोहा लेने कमर कस कर तैयार हो गये. वे चिल्लाने लगे - '' राम - रावण - जिन्दाबाद,'' और मैनेजर - '' मुर्दाबाद.'' इनकी आवाज ने मैनेजर के बहरे कानो को फाड़ दिए. उसने चढ़ौत्री के रुपयों को सात तालों वाली पेटी में बंद किया. पात्रों के पास आया. मैनेजर के संबंध में इतना जानकारी दे देना अधिक है कि वह राम और रावण को अपने कंधे पर बिठाकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक दौड़ लगा सकता है. उसे देख शेर की तरह दहाड़ने वाले पात्र भींगी बिल्ली बन गये. मैनेजर ने सबको घूरकर देखा और कहा - '' अरे , राम और रावण कब से भाई बन गये जो चिपक कर बैठे हैं.'' किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया तो उसने फिर से पूछा - '' गूंगे हो गये हो, जो उत्तर नहीं दे रहे हो. मैं पूछता हूं कपड़े मिल के हड़तालियों की तरह नारेबाजी क्यों लगा रहे हो ? '' रावण की कनखियों की इशारे ने हिम्मत दी तो राम ने कहा - '' रोजी - रोटी के लिए, अपने वाजिब हक के लिए. . . ।''
- '' यानि, इतने दिनों तक भूखें रहे. यदि ऐसा होता तो जीवित रहते ? ''
          रावण ने स्पष्ट किया - '' वास्तविकता यह है कि आप हमे श्रम के मान से वेतन कम देते हैं. यही नहीं जो निर्धारित है वह भी पूरा नहीं मिलता.''
- '' आखिर क्या चाहते हो ?''
वशिष्ठ - '' वेतन बढ़े और समय पर मिले.''
- '' ओह्! अब समझा, विद्रोह करने पर उतारु हो .''
- विभीषण - '' नहीं, हम अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं। '' पात्रों की बात सुनकर मैनेजर ने अट्टहास किया. फिर बोला - '' घोर कलयुग आ गया. तभी तो जो सब प्रकार से संपन्न है उसकी भी नीयत डूब रही है. राम साक्षत् परम ब्रह्म परमेश्वर है. भरत विश्व का पोषक है. सुग्रीव पंपापुर का राजा है. रावण सोने की नगरी लंका का मालिक है. जब ऐसे - ऐसे कुबेर एक मंडली के मैनेजर के सामने हाथ फैला रहे हैं तो ऐ सीते, तू अपनी मां पृथ्वी से कह दे कि वह फट जाये ताकि मैं उसमें समा जाऊं.''
          हनुमान ने कहा - '' आप तो लीला की बात बता रहे है लेकिन हकीकत यह है कि हम बहुत गरीब है. . .।'' - '' चुप रह बंदर, पूरा अशोक वाटिका खा गया पर भूख नहीं मिटी तो चढ़ौत्री पर नजर गड़ा रहा है.''
परसुराम - '' अगर पेट भर जाता तो परेशान क्यों करते ?''
- '' तू क्या मेरी परेशानी समझेगा. कूद - कूद कर गांव का तख्त तोड़ दिया उसके लिए सरपंच हर्जाना मांग रहा है. अब बता - हर्जाना तेरा बाप भरेगा.''
दशरथ - '' असंसदीय भाषा का प्रयोग क्यों कर रहे हो . अपने पास नहीं रखना है तो मत रखिये. कहीं भी नौकरी कर लेगे.''
- '' अरे जा, तू बुढ़ा गया है. राम चौथी कक्ष अनुत्तीर्ण है . रावण ने शाला का मुंह नहीं देखा. तुम जैसे अयोग्य व्यक्तियों को कौन मूर्ख नौकरी देगा.'' मैनेजर बड़बड़ाता हुआ चला गया. पात्र अगली कार्यवाही करने के लिए विचार - विमर्श करने लगे लेकिन उचित रास्ता नहीं दिखा. आखिर अपने - अपने घर लौट जाने के लिए सोचा मगर एक के पास भी टिकिट के लिए पैसे नहीं थे. रामदल ने कहा - '' हो गई क्रान्ति,मिल गया अधिकार . अब घर जाने के लिए रुपये कौन देगा ?'' रावण दल ने कहा - '' तुम लोग दोगे. तुम्हारे उकसाने के कारण ही हमने मैनेजर जैसे सज्जन व्यक्ति से व्यर्थ में शत्रुता मोल ली.''
- '' अपनी गलती दूसरों पर थोपोगे ही.राक्षस स्वभाव कहां जायेगा ?''
- '' जुबान संभाल कर बातें करो अन्यथा टांगे तोड़ कर रख देगे.''
- '' टांगे तोड़ने वाले जरा सामने आकर तो देखो.''
- '' लो आते हैं, क्या कर लोगे ?'' दोनों पक्ष आमने सामने हुए. . युद्ध प्रारंभ हुआ. एक दो लाशें गिर भी जाती कि मैनेजर आ गया. बोला - '' तुम लोगों का दुश्मन मैं हूं फिर मुझसे न लड़ कर आपस में क्यों लड़ रहे हो ? '' दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर आरोप लगाये और मैनेजर से कहा - '' आपके साथ विश्वासघात करने का फल भोग चुके. अब से आपके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोलेंगे. हम क्षमा चाहते हैं.'' मैनेजर ने लताड़ा - '' कैसे क्षमा कर दूं. लड़ाई में मेरे बहुत से सामान नष्ट हो गये. उनका हर्जाना कौन भरेगा ?''
- '' हम भरेगें, हमारे वेतन से काट लेना.''
- '' तो ठीक है,चलो मुढ़ीपार, वहां आज से ही रामलीला दिखाना है ।''
- '' जो आज्ञा. . . . ।''
         इतना कह सभी पात्र मुढ़ीपार जाने की तैयारी करने लगे.

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