नूतन प्रसाद
अष्टावक्र के जीवन की रेल अटक-अटक कर चल रही थी. जिस दिन उसे भिक्षा मिल
जाती,वह दीवाली मना लेता कुछ न मिलता तो रह जात भीमसेनी एकादशी का व्रत .
एक दिन की बात है-उसके पेट में चूहे धमाचौकड़ी मचाने लगे. उसने आसन लगाया
और लगा खीर पुड़ी के सपने देखने. हकीकत में कुछ न मिले मगर सपने में मनचाही
वस्तु पा ही सकते हैं . इसी बीच नारद जी पधारे. बोले-यहां क्या झक मार रहे
हो. जाओ राजा जनक के पास. वे बड़े दानी है. अपंगों व निराश्रितों के लिए
उन्होंने अपना खजाना खोल दिया है. तुम भी लूटपाट करो. अष्टावक्र ने
कहा-मेरा राजदरबार में पहचान नहीं है. जिसका कोई माई बाप नहीं उसे कुछ
मिलने से रहा. मैं प्रयत्न करके हार गया. वैसे सरकार हम गरीबों पर कृपा ही
कर रही है. . . .
यदि वह हमारे जैसो के खाने पीने का प्रबंध ही कर देती तो दर दर सैर
करने का ब्रह्मानंद प्राप्त नहीं होता. हम निकम्में हो जाते चर्बी बढ़ती तो
शरीर बेडौल हो जाता. देखिए मैं कितना स्वस्थ हूं कि गाल पिचक गये हैं. पेट
का पता नहीं. अब हाथ फैलाने का पुनः सलाह दे रहे हैं . मैंने तो कई
महानुभवों के आगे हाथ फैलाये लेकिन कुछ हाथ नहीं आया. हां, दो- चार हाथ
जरुर पड़े. नारद ने कहा-तुम आदमियों के पास गये ही नहीं. यदि जानवरों के
पास जाओगे तो दुलत्ती तो मिलेगी ही. विश्वास नहीं होता है तो मैं चश्मा
देता हूं . उसे लगा लो. चश्मा सत्य तथ्य से अवगत करा देगा. नारद ने
अष्टावक्र को चश्मा दे दिया. अष्टावक्र चला चश्मा की परीक्षा लेने. वह
उन्हीं व्यक्तियों के घर गया जिन्होंने भिक्षा नहीं दी थी. ज्ञात हुआ कि वे
राजा जनक के दरबार की ओर गये हैं. अष्टावक्र दरबार की ओर भागा. रास्ते में
कुछ लोग मिले. उनके हाथ में कड़कड़ाते नोट थे. अष्टावक्र ने पूछा-तुम्हें
ये नोट कहां मिले!
चोरी तो नहीं की. लोगों ने कहा-हम विकलांग हैं. चोरी कैसे कर सकते
हैं. हमें लाचार विवश समझ कर राजा ने सहायता दी है. अष्टावक्र की आंखों को
आश्चर्य से फटना ही था. पूछा-तुम मेरी खिल्ली तो नहीं उड़ा रहे हो! तुम न
लूले लंगड़े हो न अंधे फिर अपने को विकलांग क्यों बताते हो? एक ने जवाब
दिया-तुम्हारी द्य्ष्टि में मेरी आंखें ठीक है पर मैं अंधा हूं. छात्र नेता
गुण्डागीरी करते हैं. श्रमिक नेता श्रमिकों को दिग्भ्रमित करते हैं.
धर्माचार्य दंगे कराते हैं. स्त्रियों की इज्जत सरे आम लूटती है मगर मेरी
आंखें इन्हें नहीं देख पाती. मैं अंधा हूं. दूसरे ने कहा-रीडर अपने शिष्यों
को झूठी पी. एच. डी. देते हैं लेकिन उनके विरोध में मेरे हाथ कभी खड़े
नहीं होते इसलिए लूला हूं. अष्टावक्र ने फटाक से चश्मा चढ़ाया. देखा तो
उनकी बातें सत्य थीं. अष्टावक्र दरबार में गया. वहां उसे देख दरबारी
मुसकाये. अष्टावक्र ने उसका जवाब खिलखिलाकर दिया. दरबारी ठहाका लगाये तो
अष्टावक्र ने अट्टहास किया.
ईंट का जवाब दिये बगैर हिसाब किताब बराबर नहीं होता. अष्टावक्र के
दुस्साहस को देखकर राजा जनक ने गुस्से में कहा -यह दरबार है, आपका घर नहीं.
अष्टावक्र ने कहा-मुझे मालूम है. राज दरबार मे ही तो एक दूसरे पर कीचड़
उछालने का शुभ कर्म होता है. टांगें खींची जाती है. जूतों की वर्षा होती
है. जनक और भभक गये. बोले-इस घृष्टता का जवाब बाद में लूंगा. पहले यह बताओं
कि दरबार में आते ही आपको हंसी क्यों आयी. सच- सच बताइये वरना राज दण्ड का
सामना करना पड़ेगा. अष्टावक्र ने कहा-मैं कोई जोकर हूं क्या? मुझे देखकर
दरबारियोंने दांत निपोरे. पहले उनसे पूछिये? जनक ने पूछा तो दरबारियों ने
बताया कि हम इनके शरीर की बनावट को देखकर हंसे थे. इसका एक पांव कश्मीर की
ओर भाग रहा है तो दूसरा कन्याकुमारी की ओर. अब अष्टावक्र को स्पष्टीकरण
देना था. कहा -कीड़ा कीड़ों से भेंट करता है, पक्षी पक्षी से लेकिन मैं
मनुष्य होकर जानवरों की सभा में धमक गया तो हंसी आनी ही थी. एक अधिकारी था.
वह राजा जनक का बहुत विश्वास पात्र था.
वह
अष्टावक्र पर चढ़ने को हुआ कि अष्टावक्र ने कहा-मैं तुम्हें आदमी समझ कर
सहायता मांगने गया था पर तुमने दिया कुछ नहीं. तुम पशु हो तो किसी का दुख
सुनोगे क्यों! अपनी भूल पर तुम्हारे पास क्षमा मांगने मैं खुद आ रहा था पर
तुम मुझ पर पहले से ही चढ़ रहे हो. कुत्ते का स्वभाव कहां जायेगा. . . वह
भौकेगा ही? अधिकारी भन्नाया-होश के साथ बोलिए. मैं कुत्ता हुआ तो कैसे?
अष्टावक्र ने स्पष्ट किया-कुत्ता अपने मालिक के लिए बड़ा ईमानदार होताहै.
मालिक जिस व्यक्ति की ओर इंगित कर देता है, कुत्ता उसे ही काटने दौड़ जाता
है. वह अपने मालिक को भी भौंकता है मगर उसे सावधान करने कि घर में चोर घुस
आया है और आप खर्राटे ले रहे हैं. . . . वैसे ही तुम ईमानदार हो मगर सिर्फ
सरकार के लिए. वह जिसकी ओर लुहा देती है, तुम बिना सोचे- समझे उस पर
अत्याचार करने दौड़ जाते हो. तुम्हें न्याय-अन्याय से कोई प्रयोजन नहीं.
तुम्हें बस शासकीय आदेश का पालन करना है. तुम सरकार के ऊपर नाराज भी होते
हो मगर उसे सावधान करने कि होशियार, जनता तख्ता पलटने वाली है और तुम्हें
होश नहीं. . . . . . ।
अधिकारी की खटिया खड़ी कर अष्टावक्र उद्योगपति के पास गये.
बोले-तुम्हें अपना परिचय ज्ञात है? उद्योपति ने कहा -अपना परिचय कि स मूर्ख
को ज्ञात नहीं होगा. दूसरे लखपति हूं करोड़पति हूं तो मैं पूंजीपति हूं.
राष्ट्र की उन्नति के लिए उद्योग स्थापित करता हूं. श्रमिकों का पोषण करता
हूं मेरे समानउपकारी मानव कोई है ही नहीं . अष्टावक्र ने कहा-बिलकुल गलत,
तुम तो भेड़िये हो भेड़िये. भेड़िया रक्त मांस के अतिरिक्त दूसरे चीजों पर
हाथ फेरता ही नहीं. भेड़िये आपस में गहरे मित्र होते हैं. वे एक साथ शिकार
करके उसे बांट कर खाते हैं लेकिन रात हुई कि उनका विश्वास एक दूसरे से हट
जाता है. वे इस भय में सोते ही नहीं कि मेरी नींद लगी कि मेरे मित्र मुझे
मार कर खा जायेगा. . . . . उसी प्रकार तुम और दूसरे उद्योगपति एक पथ के
राही हो तुम दोनों ही श्रमिकों को चूसते हो. उनकी संगठन शक्ति को दोनो मिल
कर तोड़ते हो मगर रखते हो आपस मे दांत काटी दुश्मनी भी. तुम्हें हमेशा भय
बना रहता है कि दूसरा उद्योगपति मेरे कारोबार पर न्यूट्रान बम न पटक दें. .
. . . . । उस दरबार में एक बुद्धिजीवी भी था. उसने टांग अड़ायी- आपका
विश्लेषण ठीक है, मैं भी यही विचार रखता हूं. अष्टावक्र ने उसे भी
उधेड़ा-वास्तव में सियार बहुत धोखेबाज और धूर्त प्राणी होता है बुद्धिजीवी
की बुद्धि ठिकाने आ गयी. उसने रोष प्रकट किया-आपने मुझे सियार कहा?
अष्टावक्र ने स्पष्ट किया -कहा नहीं, तुम शत प्रतिशत सियार हो.
सियार चटखारे ले लेकर मांस खाता है. भुट्टा मिल जाये तो उसे भी सफाचट कर
कहता है-मैं शुद्ध शाकाहारी हूं. वह खूंखार पशुओं की चमचई करता है कि
सरकार, मैं आपका सेवक हूं. जब भी हिंसा करें तो मुझ अहिसंक के लिए जूठन बचा
दिया करें. शिकार न मिले तो मुझे बताये. मैं उसके संबंध मे आपको सूचित
करुंगा. . . . उसके बाद वह हिरण,चीतल, सांभर के पास जाता है. कहता
है-मित्रों, मैं भी तुम्हारे समान असहाय एवं निरीह हूं. हमारा शिकार कभी भी
हो सकता है. ऐसे में हमारी प्रजाति नष्ट हो जायेगी. चलो, दुश्मनों को लोहा
लें मगर जब लोहा लेने का वक्त आता है तो सियार का पता ही नहीं चलता. वह तो
दुम दबाकर भग गया रहता है. . . . वैसे ही तुम बुद्धिजीवी बहादुर तो होते
हो और कायर भी. तुम बिना पेंदी के लोटे हो. चित भी मेरा, पट भी मेरा, अंटी
मेरे बाप की . ऐसा सिद्धांत तुम्हारा है. एक ओर उ, वर्ग के जूते पालिश कर
अपना स्वार्थ सिद्ध करते हो. दूसरी ओर बन जाते हो-निम्न वर्ग के पथप्रदर्शक
भी. दुनियां में जितनी प्रतिक्रांतियां हुईं उनमें प्रमुख कारणों में तुम
रहे. . . . . . ।
अष्टावक्र के तर्क से राजा जनक बड़े प्रभावित हुए. बोले-मैं आपके
चश्में और आपकी बुद्धि को नमन करता हूं. वास्तव में मैं भ्रमित था. इतने
दिनों तक मेरी समझ यह थी कि मेरे दरबारी मनुष्य हैं. अब मालूम हुआ कि ये
पशु हैं. अष्टावक्र ने कहा-घृष्टता माफ करें हुजूर,यह तो वही बात हुई-पागल
अपने को पागल नहीं समझता. वह अपने को बुद्धिश्रेष्ठ बताता है. वैसे ही आप
अपने को मनुष्य की गिनती में ले रहे हैं. यह आपका भ्रम है. इन दरबारियों की
गलती नहीं. ये अपनी बिरादरी के राजा की सेवा में ही उपस्थित हुए हैं. राजा
जनक उत्तेजना के मारे सिंहासन से उछल पड़े. उन्होंने दहाड़ लगायी-क्या
बकतें हो? मैॅ जानवर हूं? अष्टावक्र ने कहा-हां आप शेर हैं. शेर
वन्यप्राणियों का आका होता है. वह ऐलान करता है कि मेरे रहते छोटे
प्राणियों को दुख पहुंचाया तोमुझसे बुरा कोई नहीं होगा. मैं उनका रक्षक
हूं. . . . . . छोटे प्राणी उसकी बातों पर विश्वास कर लेते हैं कि मुखिया
के रहते किसकी हिम्मत जो हमें लाल आंखें दिखाये. . . . . .!
वे निर्भयता पूर्वक कुलांचे भरने लग जाते हैं. इतने में शेर लुकता
छिपता उन तक पहुंचता है और उन्हें अपने पेट में डाल लेता है. . . ठीक इसी
प्रकार आप भी आकाशवाणी, दूरदर्शन से घोषणा करते हैं-मैं प्रजापालक हूं.
मेरे रहते चिंता करने की किसी को कोई आवश्यकता नहीं मगर होता है इससे ठीक
उल्टा. आप इस तरीके से प्रजा का अहित करते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता.
वह बेचारी आपकी जय जयकार करती रहती है. . . . ।
अष्टावक्र के वाक्य पूरे नहीं हुए थे कि जनक ने कुटनीति चली-वाह
गुरु,आपका चश्मा बड़ा गुणी है. लाओ भला मैं भी लगाकर देखूं. अष्टावक्र ने
चश्मा दे दिया. जनक ने चश्मा लगाया. उससे देखा तो वास्तव में दरबार के लोग
जानवर दिखें. उन्होंने कहा-मिस्टर अष्टावक्र,अगर आपका चश्मा रहा तो हम कहीं
के नहीं रहेंगे. यह हम सबकी पोल निष्पक्ष अखबार की तरह खोल देगा. हम नहीं
चाहते कि जनता के बीच बदनाम हों इसलिए इसका तीन सौ दो करना अनिवार्य है! न
रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! इतना कह राजा जनक ने चश्में को तोड़ फोड़ कर
मिट्टी में मिला दिया.
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