नूतन प्रसाद
इन दिनों उत्साही जनों में नायक बनने की होड़ लगी है। वे समाज के सर्वोच्च सम्मान पाने एड़ी चोंटी का प्रयास कर रहे हैं - आपकी सदिच्छा जायज है पर इसके लिए आपको विजयी बनना होगा। देखिये-रामायण कालीन भारत में आर्यों और अनार्यों में युद्ध हुआ। इसमें राम और रावण का युद्ध विशेष उल्लेखनीय है। राम विजयी हुए तो कवियों और लेखकों ने उनकी प्रतिष्ठा - वृद्धि में ग्रंथ लिखा। उन्हें मनुष्य से समाज सुधारक से महापुरुष से ईश्वर के पद पर बिठाया।
इसी युद्ध में राक्षस कुल के रावण की हार हुई तो उसे अत्याचारी और पापी कहा गया। साहित्य में वह खलनायक है। कोई बुरा कर्म करता है तो उसे राक्षस कहकर राक्षस जाति की निंदा की जाती है।
रावण को दक्षिण भारतीय माना गया। इसका डरावना सच यह है कि दक्षिण भारतीय राजनीतिज्ञों को प्रधानमंत्री पद पर नहीं बिठाया जाता। उनकी कार्यकुशलता और योग्यता को नकार दिया जाता है।
देवासुर संग्राम हुआ। देवताओं की विजय हुई। उन्हें कहानियों - धारावाहिकों में खूबसूरत दिखाया गया। श्रेष्ठ कर्म करने वाले को देवपुरुष कहा गया। शुद्धवाणी को देववाणी।
दूसरी ओर दानव - असुर - दैत्यकुल के सम्पन्न और वीर लोगों की हार हुई। वे साहित्य में ग्रंथों में खल - दुष्ट और दुराचारी घोषित हुए। उन्हें डरावनी आकृति वाले खूंखार और क्रोध की भाषा बोलते हुए दिखाया गया। फिल्मों में उनका अपमान करने उनके सिरों पर सींग भी उगा दिया। आज भी बुरा कर्म करने वाले को दानव कह कर दुत्कारते हैं। प्रवृत्ति को दानवी प्रवृत्ति और वृहत्ताकार को दानवाकार।
महाभारत युद्ध में पाण्डवों की जीत हुई। उनके मुखिया युधिष्ठिर को धर्मराज कहा गया। अर्जुन ने असहाय कर्ण को युद्ध नीति के नियम के विरुद्ध मारा इसके बावजूद वे धनुर्धर और महाभाग हैं। साहित्य में उन्हें पर्याप्त सम्मान मिला है।
इसी युद्ध में कौरवों की पराजय हुई तो उनकी निंदा और आलोचना हुई। दुर्योधन का पात्र बनाने के लिए क्रूर और डरावना चेहरा वाले व्यक्ति की तलाश की जाती है।
मुगलकालीन भारत के इतिहास में अकबर को महान बादशाह का खिताब मिला है। वे विजेता थे। उनके काल में मुगल साम्राज्य का विस्तार हुआ तो उनके धार्मिक सहिष्णुता दीने इलाही की जमकर प्रशंसा हुई लेकिन औरंगजब को मुगल साम्राज्य के पतन का मुख्य उत्तरदायी माना गया। अत: उसे क्रूर - धर्मान्ध और अत्याचारी कहकर उसकी घोर निंदा की गयी।
अंग्रेजों का भारत के आधुनिकीकरण में विशेष योगदान है। अस्पताल, शैक्षणिक संस्थायें, दूरसंचार, न्यायालय, रेल और सालाना बजट, उनकी देन है। अंग्रेजी के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व में भारतीयों की पहचान हुई। प्रजातांत्रिक व्यवस्था उनकी ही देन है। उनके काल के लेखक उन्हें न्यायी और अंग्रेज बहादुर कहते थे। और ईनाम पाते थे।
लेकिन उन्हीं अंग्रेजों ने इंग्लैंड की संसद में भारत को स्वराज का अधिकार दे दिया। इस देश को छोड़कर वे अपने वतन चले गये। आज के इतिहास में वे लुटेरे - अत्याचारी और फिरंगी के नाम से बदनाम है। फिल्मों में उनकी कू्ररता दिखाई जाती है। किसी गोरी चमड़ी वाले व्यक्ति को भारतीयों पर अत्याचार करते दिखाया जाता है। इससे अंग्रेजों के खिलाफ घृणा का भाव उभरता है।
कांग्रेस की अगुवाई में देश में स्वराज आया। विजेता के रुप में उसका गुणगान हुआ। उनके नेताओं को कवियों और लेखकों ने महापुरुष का दर्जा दिया।
लेकिन बाद में केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई। पासा पलट गया। उसकी आलोचना होने लगी। नेताओं पर आरोपों की बौछारें पड़ने लगी। लेखकों ने डूबता सूरज कहकर उसकी निंदा की।
वर्तमान भारत में बहुसंख्यक बल के लोगों की सामाजिक जीत हो चुकी है। साहित्य और सरकार उनका पक्ष लेती है। उनकी सुरक्षा के नियम कानून बनाये गये हैं। कविता - कहानी, फिल्म, धारावाहिक में उनका उपहास यदि किया गया या उन्हें खलनायक बनाया गया तो निर्माता को कारावास का दण्ड मिलेगा।
इधर ब्राहृमण - ठाकुरों याने सवर्णों की पौराणिक गाथाओं में बड़ी प्रशंसा हुई है। लेकिन आज सामाजिक हार हो चुकी है। अत: ब्राहृमणों पर धार्मिक लुटेरे, रुढ़वादी, छुआछुत को बढ़ावा देने वाले के आरोप लगते हैं। वर्तमान साहित्य उनके विरुद्ध है। उन्हें भगवा वस्त्र पहनाकर सिर में चोटी दिखाकर, जनेऊ पहनाकर उपहास करते हैं एवं स्वयं आनंदित होते हैं।
राजपूतों ने विदेशी आक्रमणकारियों से युद्ध करके देश और समाज की रक्षा की। शहीद होने के कारण उनकी संख्या नगण्य है। लेकिन आज वे साहित्य समाज और सरकार के द्वारा अत्याचारी और निर्दयी घोषित है। फिल्मों में खलनायक बनाना हो तो ठाकुर पात्र रखते हैं। उनके स्वभाव को क्रूर दिखाया जाता है। उनके मुँह से गंदी गालियाँ दिलवाई जाती है। लोगों पर जुल्म ढहाते दिखाई जाती है।
उपरोक्त लेख का सार यह है कि यश या अपयश - विजय या पराजय पर निर्भर है। भारत का इतिहास संख्या बल पर आधारित है। बहुसंख्यक इतिहास पुरुष की जाति का पक्ष लिया गया, पर क्षीण संख्यक की उपेक्षा या आलोचना हुई। यह परिपाटी बदस्तूर जारी है।
इस धारणा का बुरा असर गाँवों, अर्ध शिक्षितों और मध्यम वर्ग पर है। वे व्यक्ति के जाति के अनुसार प्रशंसा या निंदा करते हैं। कर्म पर उनका ध्यान नहीं जाता।
भविष्य का भारत - अब प्रश्न यह है कि वर्तमान में स्थित जातियां, धर्म, सामाजिक मान्यतायें स्थायी रहेंगी? इसका उत्तर है - कदापि नहीं। आर्य जीते तो उसका अस्तित्व शेष रहना था। मगर नहीं रहा। युद्ध के पश्चात पूरा समाज ही बदल गया। नवीनीकरण हो गया। बस ऐसे ही देव - दानव, कौरव और पाण्डवों के युद्ध के पश्चात समाज एक दूसरे में समाहित हो गया। नवयुग का अंकुर फूटता गया।
इसी प्रकार बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के मध्य भयंकर सामाजिक युद्ध होगा। छोटे - छोटे सामाजिक इकाइयां दोनों पक्षों में बंट जायेंगी। बस महाभारत जैसा। कौरव और पाण्डवों के मध्य युद्ध हुआ। इसमें अन्य राजा दोनों पक्षों में बंट गये और युद्ध किया।
सामाजिक युद्ध के पश्चात यह एक - दूसरे में समाहित हो जायेगा। सभी मिलकर नवयुग का निर्माण करेंगे।
प्रकृति में वर्षा - शरद के बाद पतझड़ आता है। वृक्ष पत्तों से शून्य हो जाता हैं, फिर बसंत में नये कोपलें फूटते हैं। पूरे वातावरण में स्फूर्ति की सुगंधि फैल जाती है।
इस युद्ध का प्रमुख अस्त्र बौद्धिक वाद विवाद, एक दूसरे पर दोषारोपण, स्व को सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित करने की चेष्ठा, विपक्ष का अनादर और नीचा दिखाने की कोशिश होगी। अंत में सभी पक्ष थककर चूरचूर हो जायेंगी। एक दूसरे की ओर सहायता की कातर दृष्टि से देखेंगे। बस यहीं से परिवर्तन का कार्यक्रम प्रारंभ हो जायेगा, इस युद्ध में सबकी हार और सबकी विजय होगी।
ग्राम - भण्डारपुर ( करेला )
पोष्ट - ढारा, व्हाया - डोंगरगढ़
जिला - राजनांदगांव ( छत्तीसगढ़ )
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