छत्‍तीसगढ़ी महाकाव्‍य ( गरीबा ) के प्रथम रचनाकार श्री नूतन प्रसाद शर्मा की अन्‍य रचनाएं पढ़े

शुक्रवार, 10 जून 2016

नैनं छिन्दति शास्त्राणि

नूतन प्रसाद शर्मा

     गीता में कृष्ण ने कहा है कि शरीर में आत्मा स्थित है। इसे शस्त्र काट नहीं सकता। अग्रि इसे जला नहीं सकती।
     कृष्ण ने कहा है तो सत्य होगा। लेकिन इसकी पुष्टि के लिए परीक्षण करना होगा। डाक्टर ने सम्पूर्ण देह का शल्य क्रिया करके बताया कि शरीर में मांस है - अस्थि और रूधिर है मगर कहीं भी आत्मा नहीं है।
इसका मतलब यह हुआ कि कृष्ण ने असत्य कहा। लेकिन कृष्ण के कथन पर शंका नहीं की जा सकती। तो आखिर बात क्या है -
     आदि कवि वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के जोड़े को देख रहे हैं। वे आपस में चह चहा रहे हैं। खुशियंा मना रहे हैं। तभी एक शिकारी आया। उसने निशाना बना कर पक्षी को मार गिराया। प्रियतम को मरा हुआ जानकर मादा विलाप करने लगी। इसे देख वाल्मीकि की आत्मा से करूणा मिश्रित आह निकली -
मा निषाद त्वम गम: शाश्वती सम:
याक्रौच मिथुना देवाम अवधि ताप मोहितम।

     अब यह स्पष्ट हो गया कि दुखी प्राणी को सांत्वना देने की इच्छा जागृत होती है। वह आत्मा से निकलती है। असहाय से सहायता देने की प्रेरणा आत्मा ही देती है।
     एक स्त्री नदी में नहा रही है। उसके तन पर लेश मात्र कपड़ा नहीं है। तभी गाँधी जी पहुंचते हैं। उनकी आत्मा ने देखा कि सम्पूर्ण भारत की माता - बहनों के अंग पर लज्जा ढांकने पर्याप्त वस्त्र नहीं है। उन्होंने अपनी धोती को मध्य से फाड़ा। उसे स्त्री की ओर उछाला। स्त्री ने धोती पहनी। उसकी मर्यादा सुरक्षित हो गई। उसने गांधी को कृतज्ञ भाव से देखा - जैसे पुत्री अपने पिता को देखती है।
     चितौड़ की रानी राजमती के राज पर शत्रु ने आक्रमण कर दिया। रानी ने हुमायु के पास सूत का एक टुकड़ा भेजा। कहा - भैया, मैं मुसीबत में हूं। मेरी मदद करो।
     हुमायु सोच में पड़ गया। यह रानी राजपूत घराने से है। मैं तो मुगल हूं। क्यों मदद करु ? लेकिन उसकी आत्मा ने समझाया - रानी ने तुम्हें राखी भेजी है। विपत्ति में घिरी रानी की अवश्य मदद करो।
     रानी ने सेना लेकर रानी की सहायता की। शत्रु को हराकर राज्य को पुन: सौंपा। कहा - बहन, मेरे मन में भेद उत्पन्न हो गया था। आने में कुछ देरी हुई। इसके लिए क्षमा करना।
     भारत और पाकिस्तान के बीच कंटीले तारों से बाड़ लगा दिया गया है। जब तब दोनों ओर से गोलियां बरसाई जाती है। क्रिकेट मैच में तो जानी दुश्मन बन जाते हैं मगर वहां ------- विद्यालय में आतंकियों ने हमले किये। मासूम छात्रों को गोलियों से छलनी कर डाला। तब भारत के हर नागरिक की आत्मा कराह उठी। सीमा में बाड़ लगने के बावजूद उसने अपना दुख वहां तक पहुचाया।
भारत और पाक में मतभेद अनेक हैं।
पर विपत्ति के वक्त हम साथ है, हम एक हैं।
     ज्येष्ठ की धूप थी। ऊपर से सूर्य आग बरसा रहा था। नीचे धरती तप रही थी। महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला चल रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक मजदूरनी सड़क पर श्रम कर रही है। उसक शरीर से पसीना गिर रहा है। पांवों मे फफोले पड़ गये हैं। इस दारूण व्यथा को देखकर निराला की आत्मा से यह कविता अपने आप बह चली - 
वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर

     गाँव का सरपंच परेशान था। लोग उसकी विकास कार्यों की भी आलोचना करते। गली गली में उसकी निंदा होती।
     एक वृद्ध ने वृद्धावस्था पेंशन के लिए आवेदन दिया। सरपंच गुस्से में था। उसने डांट दिया कि मैं तो बुरा व्यक्ति हूं। भ्रष्टाचारी हूं। अकर्मण्य हूं। जाओ तुम्हारा काम नहीं करुंगा।
     वृद्ध वापस हो गया। बाद में सरपंच की आत्मा ने समझाया कि तुम जिम्मेदार पद पर हो। तभी लोग आशा लेकर तुम्हारे पास आते हैं। उस वृद्ध की सहायता करो।
     सरपंच वृद्ध के घर गया। क्षमा मांगी। उसके पेंशन के आवेदन को मांगा। जनपद से पास कराया। तब उसकी आत्मा को संतुष्टि मिली।
    यह सत्य है कि आज हर राजनेता बदनाम है। लोग उसे भ्रष्टाचारी कहकर निंदा करते हैं। इसके बावजूद वह जरुरत मंदों की सहायता करते हैं। और यह प्रेरणा शरीर में स्थित आत्मा देती है।
     लक्ष्मण मस्तुरिया ने उपेक्षितों - असहायों को गले लगाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने कहा -
मोर संग चलव रे
मोर संग चलव गा
गिरे परे मनखे मन
परे डरे मनखे मन
मोर संग चलव रे
मोर संग चलव गा

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