- नूतन प्रसाद -
एकदा सुरम्य नैमिषारण्ये सबके हितैषी मुनियों ने सभा किया। इसी बीच महातेज सूतजी अपने शिष्यगणों के साथ वहां पधारे। उन्हें सबने साष्टांग प्रणाम किया और बैठने का उच्चासन दिया। तत्पश्चात् शौनकादि मुनियों ने विनयपूर्वक प्रश्न किया - हे महर्षि, इस कलिकाल के प्राणी धनहीन तथा अनेकानेक पीड़ा से युक्त हैं। वे सुखी एवं सम्पन्न हों ऐसा कोई उपाय बताइये। हे महामते, ऐसा कौन व्रत है जिसके करने से मनोवांछित फल मिलता है, कृपया हमें सुनाइयें ?
सूतजी बोले - हे मुनिश्रेष्ठ, जिससे सबका क्लेश दूर हो जाये, ऐसा उपाय बतलाता हूं। असत्यनारायण नामक एक अतिउत्तम व्रत है। जिसके करने से इस लोक में सुख और अंत में मोक्ष मिलता है। सर्वप्रथम मनुष्य झूठे नारायण को शराब, चाय, भांग इत्यादि पंचामृत से नहलाकर इस प्रकार मंत्र पढ़े - स्नानं पन्चामृतै: देव गृहाण नेत्तोत्तम। अनाथ- नाथ सर्वज्ञ गीर्वाण प्रणतप्रिये। तत्पश्चात् कागज, सफेद कपड़े और मछली हाथ में लेकर इस प्रकार ध्यान लगावें - यन्मना भक्ति - युक्तेन मतपत्रं, खादी वस्त्रं पाठीनं। निवेदितं च सामानं तदगृहाणनुकम्पया। इस तरह सम्पूर्ण विधि - विधानों से नेता भगवान की पूजा करें। इससे दुख - शोक की नाश होती है और धन - धान्य की वृद्धि एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
सूतजी बोले - हे मुनीश्वरों, इस व्रत को जिन्होंने पहले किया उसे कान लगाकर सुनो। कांशीपुरी में शतानन्द नामक एक गरीब ब्राम्हण रहता था। वह भीख माँगकर अपना जीवन चलाता था। चुनाव के वक्त उसने निश्चय किया कि भिक्षा में जो कुछ मिलेगा, झूठे नारायण को अर्पित करूंगा। उसने घर - घर जाकर अन्न के बदले वोट माँगा और असत्यनारायण की पूजा की। इस व्रत के प्रभाव से वह ब्राह्मïण एक धाम का मठाधीश हो गया और इस लोक में सुख पाकर अंत में असत्य लोक को गया।
सूतजी बोले - एक समय वही शतानन्द अपने बान्धवों के साथ व्रत कर रहा था कि एक लकड़हारा आया। उसने पूछा - हे भूसुर, आप यह क्या कर रहे हैं, और इसके करने से क्या फल मिलता है ?
ब्राह्मïण बोला - यह सर्वमनोरथ को देने वाला असत्य नारायण व्रत कथा है। इसके करने से दरिद्रता की नाश होती है। यह वचन सुनकर लकड़हारा अत्यंत प्रसन्न हुआ। प्रसाद खाकर वह जंगल की ओर रवाना हुआ। वहाँ अनेकों वृक्षों को काट गिराया। गाँव के बढ़ई के द्वारा कुर्सी बनवाकर नेता भगवान को अर्पित किया। उसकी इस पूजा से असत्य नारायण प्रसन्न हुए। ईश्वर की कृपा से वह लकड़हारा वन विभाग का वरिष्ठï अधिकारी बना जो जंगलों का सफाया करवा के खूब धन कमाया। वह इस जन्म में अभिलषित सुख भोगकर अंत में असत्य लोक को गया।
सूतजी बोले - रत्नपुरी में साधु नामक एक व्यापारी रहता था। उसकी एक लड़की हुई। जिसका नाम कलावती रखा गया। जब लड़की जवान हुई तो साधु ने एक सुवर पाणिनी ने सुअर भी कहा है खरीदा और उसके साथ अपनी पुत्री की शादी कर दी। कुछ दिन बाद वह दामाद को लेकर समुद्र के निकट रत्नसार नामक शहर में व्यापार करने लगा। उसका धंधा उन्नति कर ही रहा था कि आयकर अधिकारियों ने छापा मारा। वणिक बहुत घबराया। उसने निश्चय किया कि अगर इस लफड़े से मुक्त हो जाऊंगा तो असत्य नारायण की पूजा करूंगा। नेता भगवान की कृपा से उसका बाल भी बांका न हुआ।
जब उसने खूब धन कमा लिया तो अपने नगर की यात्रा की। कुछ दूर जाने पर असत्यनारायण ने व्यवसायी के विचार जानने के लिए प्रकट होकर पूछा - तेरी नाव में क्या है ?
धनोमत्त महाजन बोला - हे दण्डिन, तुम्हें मुझसे क्या मतलब ? मेरी नाव में तो लता - पत्र इत्यादि भर हैं।
उसके इस कठोर वचन से नाराज होकर दण्डी रूपी असत्य नारायण ने श्राप दिया कि तेरी बात सत्य हो। इतना कहकर वे कार में बैठकर अंतर्ध्यान हो गये। नित्य क्रिया के पश्चात जब व्यापारी ने अपनी नाव देखा तो आश्चर्य में पड़ गया। नाव में लतादि के सिवा कुछ नहीं था। वह धाड़ मार कर रोने लगा और असत्यनारायण को ढूंढने लगा। अंत में नेता भगवान को एक पुल का उदघाटन करते हुए पाया। दण्डि के चरणों पर गिरकर साधु ने गिड़गिड़ाया - हे स्वामी, आपकी माया को विरोधी तो क्या आपके दल के लोग भी नहीं जानते, फिर मैं कैसे जानूं ? प्रसन्न होइये और मुझे क्षमा कीजिये। अपने सामर्थ्य - अनुसार आपकी पूजा करूंगा।
भक्तियुक्त वचन सुनकर कुर्सी प्रेमी भगवान संतुष्टï हुए और एवमस्तु कहकर व्यवसायी को वापिस कर दिया। साधु जब नाव के पास आया तो सभी सामानों को पूर्ववत पाकर हर्षित हुआ। अब वहाँ रूकना बेकार था, इसलिए अपने नगर की ओर चला। कुछ दिनों के बाद जब वह दामाद के साथ रत्नपुरी के पास पहुँचा तो पत्नी लीलावती और पुत्री कलावती उन्हें लिवाने आयीं। तभी एक दुर्घटना हो गई। अचानक दामाद गायब हो गया। पति को न देखकर कलावती विलाप करने लगी। साधु व्यवसायी की दशा भी सोचनीय थी।
यद्यपि उस समय कहीं भी आकाशवाणी केन्द्र नहीं था, फिर भी यह बात सुनाई दी - तुम्हारे दामाद को पुलिस वाले अपहरण कर ले गये हैं। यदि असत्य नारायण को खुश करोगे तो तुम्हारा दामाद वापस मिल जाएगा। साधु ने तत्काल हामी भर दी। कुछ देर बाद ही उसका दामाद सकुशल आ गया। उसे पाकर सब प्रसन्न हुए और घर आए। व्यापारी हर महीने के हिसाब से असत्य नारायण की पूजा करने लगा। कुर्सी प्रेमी भगवान की कृपा से वह कुछ ही वर्षों में उद्योगपति हो गया।
सूतजी बोले - हे मुनिप्रवर, असत्यनारायण के प्रभाव एवं शक्ति का वर्णन जब सरस्वती भी नहीं कर सकती फिर मेरी बिसात ही क्या है ? कलिकाल में नेता भगवान से बढ़कर कोई अन्य पूज्यनीय नहीं है। जो भी भक्तिपूर्वक असत्यनारायण की पूजा करता है, अभिलषित सुख पाता है। इसमें जरा भी संशय नहीं है। इतिश्री स्कंध पुराणे रेवाखण्डे श्री असत्य नारायण व्रत कथायां समाप्त:।
ग्राम - भण्डारपुर ( करेला )
पोष्ट - ढारा, व्हाया - डोंगरगढ़, जिला - राजनांदगांव [छ.ग.]
पोष्ट - ढारा, व्हाया - डोंगरगढ़, जिला - राजनांदगांव [छ.ग.]
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