नूतन प्रसाद
आप क्रान्तिकुमार से परिचित है . नहीं तो जान लीजिए कि ये वही लेखक हैं जो अनेकों पुरस्कार अपने कब्जे में कर चुके है.उनके पुरस्कार हड़पने के भी एक आनंददायिनी कहानी है.वे चर्चित प्रख्यात कहलाना चाहतेे थे.पर पुरस्कृत हुए बिना उनका नाम जगमग नहीं हो पा रहा था .
क्रान्तिकुमार सभी तिकड़म कर चुके थे.पर पुरस्कार हाथ नहीं आया तो वे मुख्यमंत्री के पास पहुंचे.कारण पड़ने पर गधे की शरण पर गिरना पड़ता है.फिर तो वे व्ही.पी.आई. थे.मुख्यमंत्री उन्हें देखते ही आग बबूला हो गये - '' तुम ही हो न जो अंधाधुंध आलोचना करते हो.अखबारों में मुझ पर कीचड़ उछालते हो.''
लेखक की नानी मर गयी.वे मिमयाये - '' नहीं सर,मैंने आपकी कभी बुराई नहीं की.''
- '' झूठ बोलते हो ...।'' मुख्यमंत्री ने अखबारों की प्रतियों को लेखक पर फेंका.अपनी अंधी आंखों से पढ़ लो.इनमें जितने भी मेरे विरूद्ध लेख छपे है.वे तुम्हारे द्वारा ही लिखे गये हैं.
लेखक की गलती पकड़ी गयी थी.उनके मुंह पर ताला पड़ गया.थोड़ी देर बाद बोले- '' सर, आप भ्रम में न पड़े.मैं आपका विरोधी नहीं अपितु अन्नय भक्त हूं.आपकी जो खिंचाई करता हूं, दरअसल वह आपकी स्तुति है.''
- '' मुझे मत चलाओ बेवकूफ , क्योंकि किसी की निंदा स्तुति नहीं हो सकती.'' मुख्यमंत्री ने उबलते हुए कहा.
- '' मैं सच कह रहा हूं.आप धर्मधरंधर है इसलिए ज्ञात भी होगा कि भक्ति के प्रकारों में एक भक्ति ऐसी भी होती है.जिसमें भक्त अपने इष्ट का गुणगान या अराधना नहीं करता अपितु उनकी निंदा करता है.जैसे रावण राम को शत्रु भाव से भजता था.स्वयं राम ने कहा भी है - '' बैर भाव मोहि सुमिरत निसिचर...।'' तभी तो जब रावण की मृत्यु हुई तो उसकी आत्मा राम में समाहित हो गई.
- '' तो क्या तुम भी...।''
- '' जी हां, मैं भी आपको कटुशब्दों के द्वारा ही भजता हूं.''
मुख्यमंत्री गदगद हुए.उनने क्रान्तिकुमार को पुरस्कार देने की घोषणा कर दी.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें