नूतन प्रसाद
कृष्ण वटवृक्ष के नीचे बैठे थे। वे पैर के ऊपर पैर रखकर अंगूठों को हिला रहे थे। तभी वहाँ जरा नामक बहेलिया आया। उसने बाण उठाया- कृष्ण के ऊपर वार कर दिया। कृष्ण घायल हो गये। अंतत: वे गो लोक गमन कर गये।
इस घटना से लोग आहत हुए। शोक मनाया फिर धीरे- धीरे विस्मृत करते गये। लेकिन जिज्ञासु की नींद उड़ गयी। वह जघन्य घटना को भूल नहीं पाया। वास्तविक तथ्य का पता लगाने जरा की खोज में निकल पड़ा।
आगे उसने देखा कि झोपड़ियों से भरा एक गाँव है- वहाँ श्रमिकों दीन हिनों का निवास है। जिज्ञासु ने एक मजदूर से पूछा- भाई, तुमने जरा को कहीं देखा है? उसका पता जानते हो तो बताओ ?''
मजदूर ने एक महल की ओर इशारा किया। कहा- वो देखो, वह जरा का मकान है। वह पहले हमारे जैसा गरीब था। मिहनत मंजूरी करके - थोड़ा बहुत शिकार करके अपने पेट पालता था.... अब तो भई उसकी शान का क्या कहना - उसके पास ढ़ेर सारी जमीन है। सोना है, चाँदी है। पहले वह हमारा संगी - साथी था। मगर अब हीन भावना से देखता है।''
जिज्ञासु आश्चर्य में पड़ गया। इस रहस्य का पता लगाने वह जरा के पास गया। उसने जरा से पूछा- तुमने कृष्ण के ऊपर बाण क्यों चलाया ?''
जरा ने कहा - कृष्ण पैर के अंगूठा को हिला रहे थे। मैंने समझा कि वह हिरण की आँख है। धोखे से बाण चला दिया। कृष्ण आहत हो गये। बाद में मुझे अपनी भूल ज्ञात हुई।''
जिज्ञासु को तैश आ गया। उसने कड़े शब्दों में कहा - तुम अनुभवी शिकारी हो। पशुपक्षी के चलने की आवाज सुनकर तुम्हे ज्ञात हो जाता है कि यह कौन सा प्राणी है। रात में भी तुम्हारा निशाना अचूक रहता है... । तुम्हे ज्ञात था कि यह कृष्ण का अंगूठा है। हिरण की आँख नहीं फिर तुमने जानबूझकर बाण क्यों चलाया। ''
जरा घबरा गया। उसने बताया - आखिर मैं क्या करता। गरीबी से तंग आकर अपराध करना ही पड़ा। मैं महिनत मंजूरी करता लेकिन आभावों से जुझता रहता। गरीबी से तंग आकर उसे सदा के लिये मुझे दूर करना ही पड़ा।''
जिज्ञासु ने कहा - साफ - साफ बताओ ? मेरे पास एक व्यक्ति आया वह मुक्क सफेद कपड़े पहना था। उसका व्यक्तित्व भव्य और दिखने में शालिन था। उसने मुझसे कहा कि तुम्हें माला माल कर दूंगा।''
जरा ने पूछा - आखिर वह कौन सा काम है। मैं भी तो सुनूं ?''
- तुम्हें कृष्ण को इस संसार से हटाना होगा।''
जरा आश्चर्य में पड़ गया। कहा - क्या कहते हो। कृष्ण ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा। उनसे शत्रुता का कारण तो बताओ ?''
- देखो, ईष्यालु हमें परजीवी या शोषक कहते है पर वास्तव में हम बुद्धिजीवी है। अपनी चालाकियों के कारण हमें श्रम नहीं करना पड़ता। मजदूरों से काम करवाते है। आनंद से रहते हैं... लेकिन कृष्ण ने जीना हराम कर दिया है। तुम तो जानते हो गांव में दूध दहीं शाक भाजी और अनाज पैदा होता है। पहले हम रूपये देकर खाद्यान्न खरीदते लेते। बिना महिनत किये मनपसंद भोजन करते थे। लेकिन कृष्ण ने हमारा विरोध करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने गांव वालों को भड़काया कि तुम अनाज पैदा करते हो तो तुम खाओ। तुम्हारे बच्चे दूध- दहीं खायें ... नगर के लोग अमरबेल है। वे दूसरों के भरोसे अपना जीवन पालते हैं .... और यहीं बात हमें शूल की तरह चुभ रही है। कृष्ण हमें भूखे मारना चाहते है। वे हमारे शत्रु है। उनसे प्रतिशोध लेने में हमारी मदद करो।''
जरा ने कहा - मैं तत्काल तुम्हारी बात नहीं मान सकता। मुझे चिन्तन करने का अवसर दो।''
कुछ दिन बाद अन्य व्यक्ति आया- दिखने में सज्जन साथ ही मृदुभावी था। उसने मुझे और मेरे परिवार को ढ़ेर सारे नये - नये कपड़े दिये। फिर कहा - तुम कृष्ण को मृत्युलोक से विदा कर दोगे तो तुम्हारे लिये महल बनवा दूंगा। इस टूटी - फूटी झोपड़ी में कब तक सड़ते रहोगे।''
जरा हक्का बक्का रह गया। उसने पूछा - आखिर कृष्ण की तुमसे क्या शत्रुता है। उन्होंने तुम्हारा क्या नुकसान किया ? मुझे समझ नहीं आता कि मुझ पर उपकार क्यों करना चाहते हो ?''
उस व्यक्ति ने पुन: कहा- मैं एक कपड़ा मिल का स्वामी हूं। तुम्हे ज्ञात है - द्यूत क्रीडा में युधिष्ठिर, द्रौपदी को हार गये। चिरहरण का वक्त आया तो कृष्ण ने साड़ी की पूर्ति की- वह भी मुफ्त में। आज भी जरूरत मंदों को अनाज - दवाइयां, कपड़े याने आवश्यक वस्तुएं मुफ्त में बंटवाते हैं... । उनकी यहीं उदारता हमारे लिये घातक बन गई। हम बेमौत मारे गये। हमारे गोदाम में कपड़े भरे पड़े है। वे सड़ रहे है ... उनका कोई क्रेता नहीं। लोग कहते है - जैसे कृष्ण मुफ्त में वस्तुएं बांटते हैं, वैसे तुम भी नि:शुल्क बांट दो। ''
जरा ने कहा- यह अच्छी बात है। शासक का काम जनता का देखभाल करना है। मुझे कृष्ण ने कई बार मदद की है।''
आगन्तुक ने कहा - तुम कब तक कृष्ण के आगे भीख मांगते रहोगे। मेरी बात मान लो- तुम्हारे जीवन भर के लिये सारी सुख सुविधायें प्रबंध करवा दूंगा।''
जरा ने पुन: कहा - मैं उसके षडयंत्र में फंस गया। आज मेरे पास भव्य निवास है। जमीन है। सोना - चांदी है। यद्यपि मैंने कृष्ण से अन्याय किया। विश्वासघात किया। पर मैं मजबूर था। मैंने लालच में पड़कर अपराध कर डाला।
कुछ दिन बाद अन्य व्यक्ति आया- दिखने में सज्जन साथ ही मृदुभावी था। उसने मुझे और मेरे परिवार को ढ़ेर सारे नये - नये कपड़े दिये। फिर कहा - तुम कृष्ण को मृत्युलोक से विदा कर दोगे तो तुम्हारे लिये महल बनवा दूंगा। इस टूटी - फूटी झोपड़ी में कब तक सड़ते रहोगे।''
जरा हक्का बक्का रह गया। उसने पूछा - आखिर कृष्ण की तुमसे क्या शत्रुता है। उन्होंने तुम्हारा क्या नुकसान किया ? मुझे समझ नहीं आता कि मुझ पर उपकार क्यों करना चाहते हो ?''
उस व्यक्ति ने पुन: कहा- मैं एक कपड़ा मिल का स्वामी हूं। तुम्हे ज्ञात है - द्यूत क्रीडा में युधिष्ठिर, द्रौपदी को हार गये। चिरहरण का वक्त आया तो कृष्ण ने साड़ी की पूर्ति की- वह भी मुफ्त में। आज भी जरूरत मंदों को अनाज - दवाइयां, कपड़े याने आवश्यक वस्तुएं मुफ्त में बंटवाते हैं... । उनकी यहीं उदारता हमारे लिये घातक बन गई। हम बेमौत मारे गये। हमारे गोदाम में कपड़े भरे पड़े है। वे सड़ रहे है ... उनका कोई क्रेता नहीं। लोग कहते है - जैसे कृष्ण मुफ्त में वस्तुएं बांटते हैं, वैसे तुम भी नि:शुल्क बांट दो। ''
जरा ने कहा- यह अच्छी बात है। शासक का काम जनता का देखभाल करना है। मुझे कृष्ण ने कई बार मदद की है।''
आगन्तुक ने कहा - तुम कब तक कृष्ण के आगे भीख मांगते रहोगे। मेरी बात मान लो- तुम्हारे जीवन भर के लिये सारी सुख सुविधायें प्रबंध करवा दूंगा।''
जरा ने पुन: कहा - मैं उसके षडयंत्र में फंस गया। आज मेरे पास भव्य निवास है। जमीन है। सोना - चांदी है। यद्यपि मैंने कृष्ण से अन्याय किया। विश्वासघात किया। पर मैं मजबूर था। मैंने लालच में पड़कर अपराध कर डाला।
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