नूतन प्रसाद
गोपाल का पुत्र ऋषिकुमार गंभीर रूप से अस्वस्थ था। गोपाल ने ऋषि का उचार बड़े- बड़े प्रतिष्ठित डॉक्टरों से कराया लेकिन कोई लाभ न मिला।
अंत में वह पत्थर के पास पहुंचा। उस पर अक्षत फूल चढ़ाया। अगरबत्ती जलाया। दीपक जलाया- करूण आवाज में विनती की - प्रभु, मेरा पुत्र बीमार है। आपके सिवा मेरा कोई नहीं है। मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिये। मेरे ऋषि को स्वस्थ कर दीजिये।''
गोपाल ध्यानमग्न हो गया। कुछ क्षण पश्चात् उधर से वैज्ञानिक निकला। पत्थर ने आवाज दी- अरे भाई। सुनो तो- यह गोपाल है न, उसका पुत्र ऋषि बीमार है, उसे स्वस्थ करने मेरी प्रार्थना कर रहा है। मैं पत्थर हूं। तुम्हीं बताओ- मैं भला किसी को कैसे स्वस्थ कर सकता हूं।''
वैज्ञानिक ने कहा- अरे, इन मनुष्यों की बातों पर ध्यान न दो। ये रूढ़िवादी और अंधविश्वासी होते है। तुम पत्थर हो। अपनी इच्छानुसार हिल डुल नहीं सकते। तुममे प्राण नहीं है तो किसी की मदद कैसे कर सकोगे।''
पत्थर संतुष्ट हुआ। वैज्ञानिक चला गया। कुछ पश्चात् जिज्ञासु आया। पत्थर ने पुन: अपना संकट बताया- तुम इस गोपाल को समझा बुझाकर यहां से ले जाओ। इसने मुझे परेशान कर रखा है - मेरी विनती करता है कि मेरे पुत्र के प्राण बचा दो। बताओ भला - मैं पत्थर हूं। निर्जीव हूं। ऋषि को कैसे स्वस्थ करूं ?''
जिज्ञासु ने कहा- गोपाल की विनती बिल्कुल सही है। तुम पर आस्था है अत: तुम ईश्वर हो। भगवान हो। प्रभु हो। तुम पर विश्वास है तो तुम सर्वशक्तिमान हो। तुम पर श्रद्धा है भक्ति है तो तुम प्रार्थना के अनुसार उस पर कृपा बरसाओ। हर हाल में ऋषि को नवजीवन देना ही होगा।''
जिज्ञासु चला गया। थोड़ी देर बाद ऋषि दौड़ता हुआ आया। वह गोपाल से लिपट गया। कहा - पापा - पापा, आप मेरे लिये नये कपड़े लेने वाले थे। चलो न पापा, मेरी मांग पूरी कर दो।''
गोपाल ने आँखे खोली। पुत्र को स्वस्थ देखकर वह प्रसन्न हो गया। उसने हाथ जोड़कर पत्थर से कहा- प्रभु, आपने मेरी विनती सुन ली। मुझे आप पर पूरा विश्वास था। देखो न मेरा ऋषि भला चंगा हो गया।''
गोपाल अपने पुत्र के साथ प्रसन्न मन से चला गया।
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