छत्‍तीसगढ़ी महाकाव्‍य ( गरीबा ) के प्रथम रचनाकार श्री नूतन प्रसाद शर्मा की अन्‍य रचनाएं पढ़े

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

मृत्‍युदान

वह वृक्ष धीरे - धीरे मुरझाने लगा.एक दिन ऐसा भी आया कि वह ठूंठ हो गया.उस वृक्ष पर बसेरा करने वाली शीला और मीता तो गाज ही गिर पड़ी.शीला ने बोरिया- बिस्तर समेटते हुए कहा -अब तो मैं पल भर भी ठहर नहीं सकती.किसी दूसरे ठिकाने का पता लगाना पड़ेगा.
मीता ने पूछा - यिों ...?
- अब इस वृक्ष में रह ही यिा गया है - न फल खाने मिलेगा, न धूप से बच ने के लिए छांव.इस मुदार् वृक्ष पर रह कर हम मुदेर् थोड़े हो जायें !
मीता धिOारते हुए बोली -वाह बहन, जब इस वृक्ष में रस था तब तो तुमने बड़े मजे किये.इसे उपकारी कह कर बड़ा गुण गाती थी.अब जब य ह बेचारा कंकाल बन गया तो भाग रही है जबकि होना य ह चाहिए था कि इसे जीवन देने के लिए प्रय त्न करती.
शीला ने आंखें मटकाकर कहा - ऐ मीता, प्रवच न और सैद्धाक्न्तक बातें छोड़ ! तू भी मेरे साथ च ल.किसी दूसरे आश्रय  दाता की खोज करें और अपने जीवन की रक्षा करें.
- मैं नहीं जाने वाली चाहे परिणाम कुछ हो.
- तुम्हें वृक्ष से लिपट कर मरना ही है तो मैं यिा करूं.मैं तो च ली.
शीला पेड़ पर थूंककर च ली गयी.मीना रूक गई और वृक्ष को नवजीवन देने के लिए य त्न करने लगी.वह दूर से पानी लाती और वृक्ष पर सींच ती.आखिर उसका पसीना रंग लाया.वृक्ष पूवर्वत हरा भरा हो गया.
जब इसकी खबर शीला को लगी तो दौड़ी आई .बोली- मैंने कहा था न कि पेड़ को जीवन देकर रहूंगी तो अपना वच न निभाकर भी दिखाया.
मीता ने कहा - बहन, तुम य हां रहने के इच्छुक हो तो कोई दुत्कार नहीं रहा लेकिन झूठ यिों बोलती हो ! झाड़ तो मेरे परिश्रम से लहलहाया है.
शीला तुनकी - मैं झूठ यिों बोलने लगी.मैं य हां से गई थी तब से तपस्या में लीन थी.य हां तक कि अÛ - जल भी त्याग दिया था.मेरे तप से इन्द्रदेव प्रसÛ होकर पानी बरसाया तब कहीं जाकर झाड़ हरा हुआ और तुम अपनी डींग मार रही हो !
मीता मुस्करायी - मिहनत करूं मैं और य श लूटो तुम.य ह तो मिहनत करे मुगीर् और अ·डे खाये फकीर हो गया.कोई बात नहीं.झाड़ की जिन्दगी तो लौटी.
शीला को अपनी इज्जत मिuी में मिलती दिखी.वह प्रहारक शबदों में बोली - तुम फिर अपना च लाने लगी.ऐेसे में मुझे बदनाम कर दोगी.दूसरे कहेंगे कि शीला बड़ी स्वाथीर् है पर मैं जगहंसाई नहीं होने दूंगी.इसके लिए तुम्हें संसार से उठना पड़ेगा तभी मुझ पर ऊंगली नहीं उठेगी.
मीता च कित होकर बोली - यिा कह रही हो ! मैं समझी नहीं ?
- य मलोक पहुंच  सब समझ जाओगी.वहां के जीव बहुत कý में हैं उनका दुख हरना.अरे, तुम तो देवी मानी जाओगी, देवी..।
इतना कह शीला मीता की ओर झपटी.अत्य धिक परिश्रम के कारण मीता सूख कर कांटा हो गई  थी.वह शीला का वार सहन न कर सकी.अत: जल्द ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये.
बाद में पता च ला कि  शीला के ही अथक परिश्रम ने पेड़ को हरा भरा कर दिया.  

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