छत्‍तीसगढ़ी महाकाव्‍य ( गरीबा ) के प्रथम रचनाकार श्री नूतन प्रसाद शर्मा की अन्‍य रचनाएं पढ़े

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

ढांक के तीन पांत

नूतन प्रसाद

          आजकल मेरी बुद्धि भ्रष्‍ट हो गई है . वह किसी भी बात का गलत अर्थ लगा लेती है . उस दिन एक बुद्धि श्रेष्‍ठ ने कहा कि सभी लोग एक ईश्वर की संतान है  . उन्हें घुलमिल कर रहना चाहिए . मैंने इसका यही  अर्थ लगाया कि इंसान और इंसान में भेद है . और उन्हें आपस में बैर भाव रखना चाहिए तभी तो वक्‍तव्‍य  देने की जरूरत पड़ गयी . वैसे ही एक नेता ने कहा कि जब गांव की उन्‍नति हो जायेगी,वह स्वर्ग बन जायेगा . तभी हम चैन की  नींद सोयेंगे इससे मैंने फिर यही समझा कि वे गहरी नींद लेना चाहते हैं लेकिन गांव की समस्याएं उन्हें निंद्रादेवी के आलिंगन में जाने से रोक रही है . मैंने उनसे कहा कि मान्यवर , आप अपनी आदत के अनुसार आश्वासन की रेवड़ी बांटना चाहते हैं तो कोई बात नहीं लेकिन ग्रामोत्थान की चिंता ने आपकी नींद हराम कर दी है तो उसकी फिक्र छोड़िये और आप घोड़ा बेच कर सो जाइये क्‍योंकि गांव को न लकवा मार गया है और न हीं उसे कोई असाध्य रोग लग गया है . जो आप उसकी जबरन चिकित्सा करने के लिए तड़प रहे हैं . अपनी जानकारी के अनुसार तो गांव में आनंद ही आनंद है . यहां सब प्रकार की सुविधाएं हैं - घर , खेत , खलिहान , तालाब सभी कुछ तो है. और क्‍या चाहिए ग्रामीणों को . खेत है जिसमें व्यायाम कर पहलवान बन सकते हैं . लोगों को मरने के लिए चुल्लू भर पानी भी नसीब नहीं होता लेकिन यहां तो तालाब है जिसमें कभी भी छपाक से कूदकर स्वर्ग की यात्रा कर सकते हैं, भले ही चन्द्रमा की यात्रा असम्भव है पर स्वर्ग की यात्रा तो अपने हाथ में है . घास की कमी है नहीं कि भूख मरे . उसकी रोटियां बनाकर खा लेते हैं . महाराणा प्रताप के वंशज को और क्‍या चाहिए . यहां धूल और कीचड़ भी है जो किसी भी क्षण उपलब्‍ध हो सकते हैं . वह भी बिना किसी  कीमत के . यह अच्छा हुआ कि दूध, घी की बनी वस्तुएं उपलबध नहीं होती वरना अपच की बीमारी हमला कर देती .
        गांव के समीप जंगल है लेकिन वहां की लकड़ियों को ग्रामीण छू भी नहीं सकते . हां ,  नैसर्गिक छटा देखने की भरपूर आजादी है . ग्रामवासियों के लिए राष्‍ट्रीयकरण का नियम लागू है पर जंगल के कर्मचारियों के लिए नहीं . उसके कर्मचारी अधिकारी कहते हैं कि हमें वेतन न मिले . बस वन विभाग से चिपके रहे तो भी जिन्दगी मजे से चल सकती है . यह सच  है कि वेतन कि परवाह नहीं करते . वे जंगल के रक्षक हैं तो उसके भक्षण करने से क्‍यों चूकें ? रक्षक ही तो भक्षण करने में समर्थ होता है . बैंक के रूपये बैंक के कमर्चारी उड़ा लेते हैं . शासकीय  शास्‍त्रागार की बंदूके पुलिस चुरा कर डाका डाल आती है . बाद में स्वयं डाकुओं की खोज में भी निकल जाती है.
        गांव में ट्रांजिस्टर है तो उनसे समाचार मिल ही जाता है कि सरकार ने ग्राम विकास के लिए इतने लाख रूपये की स्वीकृति दी है पर परिणाम निकलता है वही ढ़ांक के तीन पांत याने काम नहीं होता है . रूपयों को अधिकारी मंत्री और ठेकेदार खा जाते हैं . डकार भी ले तो सहकारिता आंदोलन में विध्न पड़ जाये . मैं उनके मनोबल को तोड़ना नहीं चाहता. उनके भी बाल - बच्‍चे हैं . उनके भविष्य  के लिए संचित करके रख लें . अपने और अपने परिवार की सुख सुविधा के लिए पूरे देश को उदरस्थ कर लें . यह बात ध्रुव सत्य  है कि मंत्रालय  के शीर्षस्थ अधिकारी देश के संवेदनशील समाचारों को विदेश तक पहुंचाते रहे हैं . दूसरों ने उन्हें देशद्रोही गद्दार कहा लेकिन मैंने उन्हें डांटा कि तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा है . तुम नहीं जानते कि वे अंर्तराष्‍ट्रीय मैत्री को सुदृढ़ कर रहे हैं . वे बड़े अधिकारी है तो छोटा काम कैसे करेंगे . गद्दारी करना साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं है . इसके लिए भी गुणवान और योग्य  चाहिए . विभीषण  साधु , सात्‍िवक , धर्मात्‍मा थे तभी विश्वासघात करने में सफल हुए. विभीषण को लंका का राज्य  मिला वैसे ही इन वीरों को भी पुरस्कार मिलना चाहिये . साथ में प्रशस्ति पत्र भी .
        ग्रामीणों को प्रकृति का दुलारा पुत्र कहा गया है इसलिए नंगे भूखे असभ्‍य  रहना होगा वरना स्वाभाविकता निश्छलता भस्म हो जायेगी . कुछ बुद्धिजीवी गांव की स्‍िथति का सर्वेक्षण करने आये तो उनने देखा कि  ग्रामवासी अच्छे  कपड़े पहने हैं .सर्वेक्षक दुखी हो गये कि देखो तो इनमें भी अब कृत्रिमता आ गयी है . ये लंगोटी में कितने सुदर्शन लगते थे . वास्तव में ग्रामीण दुख दारिद्रय  झेल ले . पर प्राकृतिक भव्यता को बर्बाद न करें.
        ग्रामीण नगर की ओर दौड़ लगा रहे हैं . गांव सूना होता जा रहा है . जब गांव की आबादी पूरी तरह साफ हो जाती है तब शांतिवादी ग्लास टकराते हैं . एक स्थान पर लोग आपस में मारकाट कर रहे थे . किसी कृष्ण को महाभारत कराने की इच्छा रही होगी . शांतिवादियों ने हल्ला मचाया कि जल्दी शांति स्थापित की जाय  वरना हम आंदोलन करेंगे . सरकार ने त्वरित कार्यवाही की . उसने उस स्थान के सभी लोगों को मरवा डाला और घोषणा की कि अब स्‍िथति नियंत्रण में है.शांति की स्थापना हो चुकी है.
        हम बाहर से सायकल रेडियो घड़ी आयात करते हैं पर नेता आयात करने की आवश्यकता नहीं है . इसके लिए हम आत्मनिर्भर है . इन नेताओं ने भाषण देने, गाली गलौज करना सीख लिया है . चाहे तो इन्हें कोई गुरू बनाकर गुण प्राप्‍त कर सकता है . ये जब कुत्ते की तरह लड़ते हैं तो लोगों को नि:शुल्क  नाटक देखने को मिल जाता है . एक दिन एक आदमी ने मुझसे कहा   - '' नांदगांव में पहलवान आये हैं . कुश्ती होगी.चलो देखने .''
        मैंने उससे कहा - भइया रे,गांव के अधकचरे नेताओं की लड़ाई देखने मुफ्त में मिल जाती है तो वहां जाकर खर्च क्‍यों करें ! हां, इनके हाथ - पांव टूट जायेंगे तो अस्पताल में भर्ती कराने अवश्य  जायेंगे.
        यहां अस्पताल खुल जाये तो भी व्यर्थ है क्‍योंकि उचित चिकित्सा नहीं होती है लेकिन एक बात पर गर्व है कि शिक्षा की स्‍िथति पहले से काफी सुधर गयी है . गरीब किसान साहूकार के खाते पर अंगूठा के बदले हस्ताक्षर कर लेता है.नवयुवक प्रेम पत्र लिख लेता है . मैंने एक संभ्रात नवयुवक से पूछा कि तुम कितने पढ़े हो. उसने कहा कि यदि तुम मेरी परीक्षा लेना चाहते हो तो लाओ कामिक्‍स , अपराध साहित्य  और सामाजिक उपन्यास . मैं अभी पढ़कर दिखा देता हूं . मैंने उसे शाबाशी दी और उन पुस्तकों की समीक्षा लिखने को कहा .
        गांव की उन्‍नति चाहने वालों में साहित्य  के उद्धारकर्ता भी हैं. उनकी कविता - कहानी गांव के दुख से दुखी होकर आंसू खर्च कर रही है . महानगर के एक लेखक ने मुझसे कहा - गांव के प्रति मेरा बचपने से लगाव है . मैं गांव में रह कर लेखन द्वारा संघर्ष छेड़ना चाहता हूं .
       मैंने कहा - मैं आपके विचारों का कद्र करता हूं लेकिन यह तो बताइये कि अपनी रचनाएं कहां छपवाएंगे . यहां से पत्र पत्रिकाएं नहीं निकलती. प्रकाशन संस्थान नहीं है.अपकी रचनाओं पर बहस कौन करेगा . यहां आपकी प्रतिभा नाश हो जायेगी.
- तो क्‍या करना चाहिए ?
- आप गांव का उद्धार करने तड़प ही रहे हैं तो यहां जमीन ले लीजिए.घर बनवा लीजिए. जब लिखते - लिखते मुड उखड़ जाये तो घूमने आ जाया करें पर मुख्यालय  शहर में ही रखें . तुलसीदास राजापुर छोड़ कांशी में बसे तब प्रचार पाये . गांव में रहते तो उनकी रामचरित मानस लाश बन चुकी होती . उमेंद सिंह का क्‍या हश्र हुआ नहीं जानते क्‍या ?
- नहीं, कौन थे वे ?
- बताने से फायदा भी क्‍या, यदि उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुई होती वे विश्वविद्यालय  में जगमगाते तो बताने में गर्व महसूसता लेकिन उनकी रचनाएं दीमक के पेट में जा चुकी हैं तो उनका नाम लेना भी अशुभ समझता हूं.
- तो क्‍या लौट जाऊं..?
- अवश्य , मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं .
        वे जिस पांव से आये थे उसी पांव से गधे के सींग हुए . आज वे महान साहित्यकार हो गये हैं . उन्हें ग्रामीणों के पक्षधर के रूप में सभी जानते हैं . अब अपनी बात बताऊं कि जब छपने की प्यास सताती है तो दीवारों पर रचनाएं ठोक देता हूं . पोस्टर कविता चल भी रही है न ! पर वाह रे  गांव के मुर्दे ये फाड़कर फेंक देते हैं.इन्हें यह भी नहीं मालूम कि साहित्य क्‍या है ! ये तो सिर्फ मिहनत करना जानते हैं . मैंने इन्हें कई बार समझाया कि हल चलाना छोड़ो और कलम उठाओ लेकिन मेरी बात मानते ही नहीं.
        एक और सज्‍जन आये . उनने ग्रामवासियों पर भोले ( भाले नहीं ) सहृदय , निष्कपट इत्यादि सम्मानसूचक शब्‍द लाद दिये . मैंने कहा - मान्यवर , गांव वाले अयोग्य  गंवार होते हैं. पर आपने इनकी प्रशंसा में पुल ही बांध दिया ऐसा क्‍यों ?
        उन्होंने कहा - तुम बुद्धू हो . शायद तुमने नहीं सुना कि समय आने पर गधे को काका बनाना पड़ता है  . शहर में काम करने के लिए मुझे मजदूर ले जाना है . इनकी बढ़ाई कर दी है तो मेरे साथ अवश्य जायेंगे और वास्तव में ग्रामीण उसके सामने भेड़ बन गये . मुझे भी नया मकान बनवाना है इसलिए मजदूरों पर श्रद्धा प्रदर्शित कर अपना स्वार्थ सिद्ध  कर लूं क्‍या ! अरे हां, वृक्ष पर चढ़ने के पहले उसे प्रणाम भी तो किया जाता है.   

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