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गुरुवार, 21 जुलाई 2016

कवि और समीक्षक

मलयालम के कवि एरितच्छना रायणम क्लिपाट पूण र्कर चुके थे.वे समीक्षकों के पास गए.बोले-आप लेखकों को छिलने में उस्ताद हैं.मेरी पुस्तक की समीक्षा तो कर दीजिए.
समीक्षकों ने रामाय ण पढ़ी.कहा-हूंह,इसमें कोई दम नहीं है.भाषा गवारू और च लताऊ है.हमसे चीरफाड़ करनी है तो संस्कृत में लिखिए.संस्कृत देववाणी है.
एरितच्छन ने कहा -साहित्य  वह है जो सबके पल्ले पड़े.संस्कृत में घसीटने से विश्रि  वग र्ही पढ़ पाएंगे.मैने लोकभाषा में इसलिए लिखा कि सब कोई सरलता से पढ़े और समझे.
समीक्षकों ने ऐरितच्छन की बातों को हंसी में उड़ा दी.एरितच्छन को बड़ा गस्सा आया.बोले -आप मुझे मुख र्न समझे .मैं संस्कृत में लिखकर दिखा दूं.मगर सोच  छ्वीजिए,मेरा राम राजधानी छोड़कर जंगलों की खाक नहीं छानेगे.ग्रामीणों को मुंह नहीं लगाएंगे.अत्याचारी रावण से मित्रता काय म करेंगे.कहिये लिख दूं संस्कृत में.
समीक्षकों की भृकुटि टेढ़ी हो गई.बोले -आप कवि होकर हमें दबा रहे हैं.नहीं करनी है आपकी समीक्षा.
एरितच्छन ने कहा-धौस किसी और को दीजिए.मै भाषा शैंली नहीं बदलूंगा.मैंने जिसके लिए लिखा है वह इसका महत्व समझ जायेगा.
वे वापस हुए और रामाय ण को जनता को सौंप दी.

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