पालक
कबीर स्वरोजगार कार्यक्रम के समर्थक थे। वे कपड़ा बुनते। श्रम करते हुए अपना और परिवार का भरण पोषण करते। समय बचता तो लोगों को सीख देते।
उनकी प्रसिद्धि बादशाह तक पहुंची। उन्होंने बुलावा भेजा कि कब तक मिहनत करके जीवन चलायेंगे। आप हमारे महल में आइये। आपकी सहायता करने इच्छुक हैं।
कबीर बादशाह के पास जाने तैयार हो गये।
लोगों में काना फूसी होने लगी- '' अब तो साहेब मिहनत का काम छोड़ देंगे। जब मुफ्त में सोना चांदी - जमीन जायजाद मिल जायेगा तो कौन पसीना गिरायेगा।''
कबीर आगे बढ़े। उन्होंने देखा कि लोगों की भीड़ लगी हैं। वे गये। देखा कि किसान का घर जलकर खाक हो गया है। कपड़े अनाज सभी जल गये है। वह करूण क्रदन कर रहा है - '' मैं तबाह हो गया। मैं मरूंगा।''
बेचारे का रो रोकर बुरा हाल था। लोग उसके पक्ष में कह रहे थे - '' जब रहने को घर नहीं, खाने को अनाज नहीं तो मौत को वरण करना ही है।''
कबीर किसान के पास गये। सांत्वना दी - '' मृत्यु समस्या का हल नहीं है। जीवन में अनेक बाधाएं आती हैं उन्हें साहस के साथ झेलना चाहिये। तात्कालिक निराशा से बचकर भविष्य के प्रति आशावान होना चाहिये ... अभी कष्ट है लेकिन भविष्य में अपने श्रम से पुन: अर्थलाभ करके सुखी बन सकते हो।''
किसान तड़फ उठा। बोला- '' साहेब, मुझे उपदेश मत दो। मुझे मरने दो।''
कबीर ने ऊंची आवाज में कहा- '' तुम मरना चाहते हो पर कबीर के रहते मर नहीं सकते। तुम्हारा कोई नहीं पर कबीर तो तुम्हारा है। जो बर्बाद हो गया उसे मैं आबाद करूंगा-
कबीर खड़ा बाजार में लिये लुकाठी हाथ
जो घर जारा आपनो चले हमारे साथ।
कबीर को जाना था बादशाह के पास। वहां धन दौलत मिलती। ऐशो आराम से जिन्दगी कटती। मगर कबीर तो साहेब पालक है। उन्हें दीन दुखियों का दुख हरना है। वे किसान को अपने घर ले आये। उसे भोजन कराया। रहने को स्थान दिया।
आज भी कबीर सत्संग में भण्डारा का आयोजन होता है - वह साहेब के बताये मार्ग पर आधारित हैं।
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