छत्‍तीसगढ़ी महाकाव्‍य ( गरीबा ) के प्रथम रचनाकार श्री नूतन प्रसाद शर्मा की अन्‍य रचनाएं पढ़े

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

रावण हाजिर हो

         विजया दशमी का दिन। रावण दहन का कार्यक्रम था। उसका बड़ा और ऊंचा पुतला बनाया था। उसके दस सिर थे। पुतला का शरीर डरावना और खौफनाक था। वहां, लेखक, समीक्षक , पत्रकार, इतिहासकार, ग्रंथों के ज्ञाता और न्यायविद उपस्थित थे। वे ऊंची आवाज में राम का जयकार लगा रहे थे।
         पुतला दहन होने वाला था कि स्वयं रावण आकर खड़ा हो गया। कहा -  '' कितना भी जघन्य अपराधी हो पर मृत्यु दण्ड देने से पूर्व उसकी अंतिम इच्छा की पूर्ति की जाती है। तुम्हारे अनुसार मैं आततायी हूं। खलनायक हूं लेकिन मुझे भी अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाय। बाद में चाहे मेरी निंदा करते हुए मेरा पुतला जला देना।''
          लोग प्रबुध थे। वे न्याय और अन्याय का अंतर जानते थे। उन्होंने रावण को अपनी वास्तविक जीवनी बताने का समय दे दिया। रावण ने कहा -  '' मैं आर्य ऋषि पुलत्स्य का पौत्र और वैवश्रवा मुनि का पुत्र हूं। ऋषि सभी विषयों के ज्ञाता, प्रतिष्ठित नागरिक, समाज के सभी वर्गो को समानता का पाठ पढ़ाने वाले होते है। मेरी मां केकसी राक्षस कुल से संबंधित है। राक्षस कुल स्वतंत्र विचारों वाला, सम्पन्न और योद्धा है। मेरी मां ने अपनी इच्छानुसार वैश्रवा से प्रेम विवाह किया। आर्य भी उच्चशिक्षित, योद्धा और समाज में सम्माननीय थे। मैं अपनी मां के पास रहता। पिता साथ नहीं थे। मैं पिता के बारे में मां से पूछता पर वह प्रश्न को टाल देती। कभी कहती कि वे लोगों को धर्म की राह पर चलने की शिक्षा देते हैं। व्यस्त हैं अत: आ नहीं रहे।
          एक दिन हम अपने बाल सखाओं के साथ खेल रहे थे। उनसे झगड़ा हो गया। वे मुझे चिढ़ाने लगे -  '' तू आकाश का बेटा है। ऊपर से टपका है। कोई मनुष्य तुम्हारा पिता नहीं है।''
         मैंने कहा - '' हैं, उनका नाम वैवश्रवा मुनि है। वे बहुत ज्ञानी हैं। विद्वान हैं।''
- '' अगर हैं तो सामने लाकर दिखा।''
          मैं मां के पास गया। कहा कि पिता के पास ले चल ... पर मां रोने लगी। मैं नादान था, पर यह समझ गया था कि पिता ने मां को त्याग दिया हैं।
          मैं युवा हुआ। पिता की खोज में निकल पड़ा। कुछ पश्चात देखा कि आर्यों की सभा लगी है। वहां पुलत्स्य और वैवश्रवा उपस्थित हैं। लोग उनकी चरण वंदना कर रहे हैं। मैं गया। पुलत्स्य के चरणों को प्रणाम किया। उन्होंने कहा -  '' तुम कौन हो ? यहां आने का प्रयोजन ?''
           मैंने कहा -  '' दादाजी, आप मुझे नहीं पहचानते- मैं आप के पुत्र वैवश्रवा का पुत्र हूं। अब मैं आपके पास ही रहूंगा। ''
          ऋषि ने मुझे घृणा से देखा। कहा - '' यह आर्यों का समाज है। हमारा कुल सम्मानित और उच्च है। तुम राक्षस जाति से संबंधित हो। राक्षसों में माता के कुल के साथ संतान को जोड़ा जाता है। अत: तुम राक्षस कहलाओगे।''
          मैं आश्चर्य में पड़ गया। कहा - '' लेकिन आर्यों में पिता की जाति संतान को मिलती है। मेरे पिता आर्य हैं। अत: मुझे उनके खानदान में सम्मिलित किया जाय।''
          मैंने बहुत अनुनय - विनय किया पर मुझे दुत्कार दिया गया। पिता होने के बावजूद मैं अवैध अस्पृष्य था।
          उसी दिन से आर्यों और अनार्यों राक्षस द्रविण में शत्रुता बढ़ गई। युद्ध होने लगा। अब मैं और परिवार राक्षस कहलाने लगा।
          राम का वनवास हुआ। उनके साथ सीता और लक्ष्मण थे। मेरी बहन सुर्पणखा ने लक्ष्मण को देखा। वह उस पर मोहित हो गई। विवाह का प्रस्ताव रखा। पर लक्ष्मण ने उसकी नाक काट दी। हमारा समाज स्वतंत्र विचारों वाला है अत: मेरी बहन का प्रस्ताव जायज था। सुर्पणखा रोते हुए मेरे पास आई। मुझे दुख हुआ। पर बाद में क्रोध से भर गया। प्रतिशोध लेने सीता का हरण कर लिया। बहन की बेइज्जती कौन भाई सहन करेगा।
          मुझे आर्यों की सामाजिक मर्यादा ज्ञात थी -  वे स्त्रियों का बहुत सम्मान करते हैं , पर स्त्री को मां -  बेटी मानते हैं । अत: सीता को महल से दूर अशोक वाटिका में रखा। उनकी सुरक्षा में वीर स्त्री त्रिजटा तैनात थी।
          उधर राम ने सीता का पता लगाने हनुमान को लंका भेजा। मेरे भाई विभीषण से उनकी भेंट हुई। मेरे भाई ने अपने राष्ट्र के साथ विश्वासघात किया। उसने लंका के सारे भेद विदेशी को बता दिया। उनमें गुप्त मंत्रणा हुई - अगर रावण पराजित हुआ तो विभीषण को लंका का शासक बनाया जायेगा।
          युद्ध हुआ। राम ने वानर जाति के वीरों से गठबंधन किया। मेरा देश आर्थिक रूप से सोने की लंका सम्पन्न था। सैन्य बल पर विश्वास था। मैंने किसी से गठबंधन नहीं किया। मैं युद्ध हार गया।
          रावण ने प्रबुद्धजनों की ओर आशाभरी नजरों से देखा। कहा -  राम विजयी हुए। उन्हें फलों से लादा जाय। सार्वजनिक सम्मान हो .... लेकिन मैं हार गया। बस इसी कारण खलनायक हूं। लेखकों ने मुझे अत्याचारी लिखा। मेरी निंदा की। मुझे देख लो मेरा एक सिर है। अन्य मनुष्यों जैसा। मगर लेखकों ने मेरी खिल्ली उड़ाने लिखा कि यह दशानन है। इसके दस सिर हैं। नाटकों में मेरे राक्षस समाज को कुरूप और वीभत्स दिखाया जाता है। उससे अहंकार युक्त भाषा का प्रयोग कराया जाता है। मैं आपसे सविनय न्याय मांगता  हूं -  क्या वास्तव में मैं आततायी हूं। क्या घृणा का पात्र हूं। क्या जलाने के लायक हूं। आप अपना स्वच्छ विचार रखिये।
          विद्वानों में तर्क मंथन होने लगा। ग्रंथों के ज्ञाता ने कहा -  यह बात सिद्ध हो गई कि  रावण और राक्षस समाज आततायी नहीं है लेकिन परम्परा के अनुसार रावण दहन होता है। इस कार्यक्रम को जारी रखा जाय।
          न्यायविद को गहरा आघात पहुंचा। कहा -  अगर पुरानी परम्परा अनुचित है। समाज में भेद डालता है तो उसमें परिवर्तन होना चाहिये। रावण दहन का कार्यक्रम स्थगित करो।
          विद्वानों में वाक युद्ध होने लगा। एक पक्ष रावण दहन के पक्ष में पर दूसरा इसका स्थगन चाहता था। इसी कारण आज भी भारत के आधे क्षेत्र में रावण दहन होता है पर शेष भाग इससे दूरी बनाये रखता है।

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