छत्‍तीसगढ़ी महाकाव्‍य ( गरीबा ) के प्रथम रचनाकार श्री नूतन प्रसाद शर्मा की अन्‍य रचनाएं पढ़े

रविवार, 25 सितंबर 2016

एकता का पथ

 नूतन प्रसाद

       गोस्वामी तुलसीदास राम चरित मानस नामक ग्रंथ पूर्ण कर चुके थे। उन्होंने बाल काण्ड में लिखा कि राम को वनवास का आदेश मिल चुका था। उनके साथ भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता थी। तभी शिव और पार्वती वहां दिखे। धर्म संकट था। अत: शिव ने राम के समीप जाना उचित नहीं समझा। उन्होंने राम को दूर से ही प्रणाम किया- '' जासु कथा कुम्भज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई सोई मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा। लंका काण्ड में दूसरा दृश्य रामेश्वरम का है - राम ने शिव लिंग की स्थापना की। शिव की आराधना की - सिव द्रोही मम दास कहावा। ते नर सपनेहुं मोहि न पावा संकर विमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़मति थोरी।
       उपरोक्त वर्णन से जिज्ञासु हैरान हो गया। वह तुलसीदास के पास गया। कहा -  '' गोस्वामी जी, आपने सर्वप्रथम शिव को राम की आराधना करते दिखाया। पश्चात राम ने शिव को अपना इष्ट बताया। मुझे आश्चर्य है कि एक दूसरे को प्रणाम कर रहें हैं। अपना पूज्य मान रहे हैं -  इसका कारण तो बताइये ?''
     तुलसीदास गंभीर हो गये। कहा - '' लेखक, बुद्धिजीवी, राजनीतिक, समाजसेवी ये सभी अपने युग की समस्याओं को सुलझाने प्रयासरत रहते हैं। वे सद्भावना और बंधुत्व को स्थायित्व प्रदान करते हैं।''
     हमारे मनुष्य समाज में दो मत प्रसिद्ध हैं - शैव और वैष्णव। शिव के समर्थक स्वयं को श्रेष्ठ बताते हैं उधर विष्णु के अनुयायी अपने को सर्वोच्च। इस श्रेष्ठता की बीमारी के कारण बड़े -  बड़े  दंगे हुये लोग मारे गये। अत: मैंने दोनों के मध्य वैमनस्यता दूर करने शैव और वैष्णव को एकाकार कराया। मैंने स्पष्ट कह दिया कि आप दोनों में कोई भेद नहीं हैं। आप शत्रु नहीं है। दोनों समाज के मुख्य अंग हैं .... मुझे विश्वास है - भविष्य में शिव के अनुयायी और वैष्णव के समर्थक एक सूत्र में बंध जायेंगे। दोनों मिलकर नये समाज की स्थापना करेंगे।
       वास्तव में गोस्वामी जी की एकता का पाठ अपने उद्देश्य में सफल रहा। आज शैव और वैष्णव में कोई भेद नहीं है हम सब एक हैं।
भण्‍डारपुर ( करेला )
पोष्‍ट - ढारा,व्‍हाया - डोंगरगढ़
जिला - राजनांदगांव ( छत्‍तीसगढ )

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