छत्‍तीसगढ़ी महाकाव्‍य ( गरीबा ) के प्रथम रचनाकार श्री नूतन प्रसाद शर्मा की अन्‍य रचनाएं पढ़े

रविवार, 25 सितंबर 2016

गहरा दाग

  नूतन प्रसाद
                                                                              
        कैेकेयी को एक सेविका की आवश्यकता थी। विज्ञापन निकाला गया। हजारों प्रत्याशियों ने भाग लिया। मगर मंथरा का चयन हुआ। वास्तव में मंथरा ने अपनी प्रतिभा का परिचय कर्तव्य परायण और सेवा कार्य पूर्ण करके दिया। एक प्रकार से वह कैकेयी की सहेली बन गई थी।
         एक दिन अयोध्या में ढिंढोरा पीटा गया कि राम को राजा बनाया जायेगा। नगरवासी खुशियां मनाने लगे। मंथरा भी प्रसन्न हुई। वह कैकेयी के पास गई। कहा - '' रानी मां, पूरे अयोध्यावासी खुशियों में भरकर नाच रहें है। पर आप अनजान सी बैठी हैं। क्या आपको प्रसन्नता का समाचार नहीं मिला ?''
कैकेयी ने पूछा - '' कैसा समाचार- मुझे ज्ञात नहीं। बताओ तो ?''
मंथरा ने बताया- '' राम का राज्याभिषेक होने वाला है। वे शासक बनकर जनता की सेवा करेंगे।''
कैकेयी चौंक गई - '' राम राजा बनेंगे तो मेरे पुत्र भरत का क्या होगा। क्या उसे राम का दास के रूप में रहना होगा। मुझे यह स्वीकार नहीं है। भरत भी योग्य है। मैं उसे राजसिंहासन पर बैठा देखना चाहती हूं।
        मंथरा राजपरिवार की भला चाहती थी। वह संबंधों में बिखराव को बचाने का प्रयत्न करने लगी। कहा - '' आप अनर्थ न सोचें। राम राजा बनेेेेंगे तो भरत सबसे ज्यादा प्रसन्न होंगे । वे स्वार्थी नहीं हैं, उन्हेंं पद का मोह नहीं है। इस शुभ घड़ी में रोड़ा न बनें। अगर विरोध किया तो आपकी सर्वत्र निंदा होगी।''
      कैकेयी फुंफकार उठी- '' मैंने निश्चय कर लिया है - अपने पुत्र को उच्चासन पर बिठा कर रहूंगी। मैं मां हूं। पुत्र के सुखद भविष्य की कामना करना मेरी लालसा है।''
      मंथरा अधिक बहस करने में हार गई। वह दासी थी। नौकरी जाने का खतरा था। अब कैकेयी ने दशरथ से कहा - '' मेरी दो मांगे स्वीकार कीजिये- प्रथम राम का अयोध्या से निष्कासन हो। दूसरा भरत को राष्ट्र प्रमुख बनाया जाय।''
       दशरथ ने दोनों मांगे अनिच्छा से स्वीकार कर ली। राम अयोध्या छोड़कर वन की ओर चले गये। भरत ननिहाल गये थे। वे वापस आये। उन्हें अपनी मां के कर्मो का पता चला। वे नाराज हो गये- '' राम मेरे आदर्श है। मैं उनके जैसा स्वच्छ शासन नहीं चला सकता। यद्यपि इस मांग में मेरे हित की कामना है मगर यह स्वार्थ से भरा है। तुम्हारे साथ रहूंगा तो आलोचक मुझे षड्यंत्रकारी कहेंगे। तुमसे पृथक रहकर जीवन यापन करना उचित है।''
       भरत अपनी मां को छोड़कर नंदीग्राम में चले गये। कैकेयी अकेेले रह गई। वह पछता रहीं थी। दुखी थी। देखते देखते शरीर कृश हो गया। उसके घर के आगे से लोग निकलते तो निंदा करते। कोसते। कैकेयी को नगर से बाहर निकालने की मांग करने लगे। एक दिन मंथरा से कहा- '' अब से तुम मेरी सेवा में मत आना। तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। मैं अपना कार्य स्वयं कर लूंगी।''
       मंथरा सन्न रह गई। पूछा -'' मुझसे क्या त्रुटि हो गई। मैंने आपकी हर प्रकार की सेवा की। फिर मुझे क्यों हटाना चाहती हो ?''
      कैकेयी बोली - '' तुमने राम का पक्ष लिया। भरत को मेरे विरूद्ध उकसाया। तुम्हारे कारण मेरा परिवार छिन्न- भिन्न हुआ है।''
       मंथरा ने अपने बचाव में अनेक पक्ष रखे मगर केकैयी ने अनसुना कर दिया। उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया। बेचारी मंथरा राजपरिवार के कोप का शिकार बन गई। उसकी जीविका छिनने से वह अभावग्रस्त हो गई।
        एक दिन मंथरा ने केकैयी के सामने नगरवासियों को बुलाया। कहा - '' मैं छोटी नदियां खल बहुराई के अनुसार राजपरिवार की एकता। सद्भावना से जलन रखती थी। इसमें शत्रुता भाव पैदा करने मैंने ही षड्यंत्र रचा। केकैयी को उकसाया कि तुम्हारा एक ही पुत्र है। भरत को राजा बनाने की मांग रखो। साथ ही राम को राजधानी से निष्कासित कराओ। इस अनैतिक व्यवहार में केकैयी निर्दोष है। सम्पूर्ण दोष मेरा है।''
         जनसमूह मंथरा को धिक्कारने लगा। लोग केकैयी के पास गये बोले - '' हम आप पर दोष डाल रहे थे। मगर सभी निंदनीय कर्म मंथर का है। हमने आपके हृदय को दुख पहुंचाया इसके लिये क्षमा चाहते हैं।''
       लोग चले गये। केकैयी ने मंथरा को बुलाया। कहा - '' तुम काम पर क्यों नहीं आती- तुम मेरे शुभचिंतक हो। तुम्हारी सेवा भावना के कारण सर्वप्रिय हो। तुम दासी नहीं मेरी सहेली बनकर मेरे पास रहो।''
       मंथरा पुन: सेवा में उपस्थित हो गई। यद्यपि वह बदनाम हुई। गहरा दाग लगा मगर वह आनंदित थी कि उसकी नौकरी बच गई। उसका पारश्रमिक निरंतर मिल रहा था।

भण्‍डारपुर ( करेला )

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