नूतन प्रसाद
भीष्म पितामह वृद्ध हो गये थे। वे बिमारियों के बाणों से आहत होकर खाट पर पड़े थे। वे दुर्योधन के शुभ चिंतक थे। दुर्योधन भी उनका बहुत ख्याल रखता था।
एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन में भूमि संबंधी विवाद हो गया। युधिष्ठिर ने जीविका के लिये जमीन की मांग रखी पर दुर्योधन ने साफ इंकार कर दिया। इस पर पंचायत बैठी। कृष्ण, विदुर, धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह सम्मिलित हुए। कृष्ण ने दुर्योधन से कहा- तुम्हारे पास अधिक जमीन है। युधिष्ठिर तुम्हारा पारिवारिक सदस्य है। भाई है। उसे भी जमीन दे दो।
दुर्योधन ने इंकार कर दिया। कहा- मैं मुफ्त में जमीन क्यों दूं।़ अगर युधिष्ठिर को जमीन चाहिये तो रूपये देकर खरीद ले। दूसरों को अधिक कीमत पर बेचता हूं। इसके लिये कुछ कम दूंगा।
युधिष्ठिर के पास रूपयों का आभाव था। मैं विपन्न हूं। तभी हाथ फैला रहा हूं।
दुर्योधन ने कहा- मांगने से भीख नहीं मिलता। जाओ। खाली हाथ लौट जाओ।
विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा- आप दुर्योधन को समझा दीजिये- अगर उसने युधिष्ठिर की मदद नहीं की तो मन में वैमन्यसता रखेंगे। शत्रुता बढ़ेगी। इससे दोनों पक्षों का नुकसान होगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- मैं किसी को क्यूं समझाऊं- दुर्योधन अपना भला- बुरा स्वयं समझता है। मैं उसका दिया खाता हूंद्ध वह मेरा पुत्र है। उसकी उन्नति में ही मेरी भलाई है।
अब विदुर ने पितामह की ओर रूख किया। कहा- आप सम्मानीय है। धर्म के ज्ञाता है। दुर्योधन को समझा दीजिये। वह आपकी सलाह मान लेगा।
पितामह ने कहा- मैं स्वयं दुर्योधन पर निर्भर हूं। मैं यहीं चाहूंगा कि वह सम्पन्न रहें। ताकि वह मेरा भरण पोषण सही रूप से कर सके। यह सही है कि मैं धर्म का ज्ञाता हूं। मगर यह भी सही है कि जीवन है तो धर्म है। मैं हर स्थिति में दुर्योधन का पक्ष लूंगा।
युधिष्ठिर को सहायता नहीं मिली। उनमें गहरी शत्रुता बढ़ती गई। उधर पितामह अस्वस्थ थे। उन्हें एक सहायता की आवश्यकता थी। उन्होंने दुर्योधन से कहा- मेरे उपचार के लिये चिकित्सक को बुला दो।
दुर्योधन टाल गया- देखिये, मैं स्वयं अपनी समस्याओं से ग्रस्त हूं। आपकी सेवा करने मेरे पास वक्त नहीं है। अपना उपचार कराने स्वयं कोई प्रबंध कर लीजिये।
पितामह हैरान रह गये- जिसका पक्ष लिया आज वह मुंह मोड़कर चला गया। उनकी तकलीफ बढ़ती गई। तभी वहां अर्जुन आये। उन्होंने चिकित्सक बुलाया। पितामह का उपचार कराया। उनकी सेवा सुश्रुषा में दिनरात लगा रहा। पितामह का स्वास्थ्य लगातार सुधरता गया। उन्होंने अर्जुन की प्रशंसा की- मैंने तुम्हारे विरूद्ध कार्य किया। दुर्योधन का पक्ष लिया मगर इस रूग्णावथा में मेरी सहायता नहीं की। तुम्हें पराया समझा पर मुझे स्वस्थ कराने में तत्परता दिखाई। अब अधिक जीने की आशा जागी है।
तभी वहां पत्रकार नारद आये। वे पितामह की बातों को सुनकर आश्चर्य में डूब गये। कहा- अर्जुन आप शत्रु है। उन्होंने आपका बहुत नुकसान किया। पर आपने सहायता मांगी। उन्होंने भी आपकी भरपूर सेवा की?
पितामह ने स्पष्ट किया- मनुष्य जब तक शक्तिमान है वह मित्र या शत्रु बनता है। भेद करता है। किसी को तुच्छ किसी को श्रेष्ठ समझता है। अर्जुन पूर्व का शत्रु है मगर आज मेरा हितैषी है। मैं इसका गुणगान करके आनंदित हो रहा हूं।
एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन में भूमि संबंधी विवाद हो गया। युधिष्ठिर ने जीविका के लिये जमीन की मांग रखी पर दुर्योधन ने साफ इंकार कर दिया। इस पर पंचायत बैठी। कृष्ण, विदुर, धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह सम्मिलित हुए। कृष्ण ने दुर्योधन से कहा- तुम्हारे पास अधिक जमीन है। युधिष्ठिर तुम्हारा पारिवारिक सदस्य है। भाई है। उसे भी जमीन दे दो।
दुर्योधन ने इंकार कर दिया। कहा- मैं मुफ्त में जमीन क्यों दूं।़ अगर युधिष्ठिर को जमीन चाहिये तो रूपये देकर खरीद ले। दूसरों को अधिक कीमत पर बेचता हूं। इसके लिये कुछ कम दूंगा।
युधिष्ठिर के पास रूपयों का आभाव था। मैं विपन्न हूं। तभी हाथ फैला रहा हूं।
दुर्योधन ने कहा- मांगने से भीख नहीं मिलता। जाओ। खाली हाथ लौट जाओ।
विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा- आप दुर्योधन को समझा दीजिये- अगर उसने युधिष्ठिर की मदद नहीं की तो मन में वैमन्यसता रखेंगे। शत्रुता बढ़ेगी। इससे दोनों पक्षों का नुकसान होगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- मैं किसी को क्यूं समझाऊं- दुर्योधन अपना भला- बुरा स्वयं समझता है। मैं उसका दिया खाता हूंद्ध वह मेरा पुत्र है। उसकी उन्नति में ही मेरी भलाई है।
अब विदुर ने पितामह की ओर रूख किया। कहा- आप सम्मानीय है। धर्म के ज्ञाता है। दुर्योधन को समझा दीजिये। वह आपकी सलाह मान लेगा।
पितामह ने कहा- मैं स्वयं दुर्योधन पर निर्भर हूं। मैं यहीं चाहूंगा कि वह सम्पन्न रहें। ताकि वह मेरा भरण पोषण सही रूप से कर सके। यह सही है कि मैं धर्म का ज्ञाता हूं। मगर यह भी सही है कि जीवन है तो धर्म है। मैं हर स्थिति में दुर्योधन का पक्ष लूंगा।
युधिष्ठिर को सहायता नहीं मिली। उनमें गहरी शत्रुता बढ़ती गई। उधर पितामह अस्वस्थ थे। उन्हें एक सहायता की आवश्यकता थी। उन्होंने दुर्योधन से कहा- मेरे उपचार के लिये चिकित्सक को बुला दो।
दुर्योधन टाल गया- देखिये, मैं स्वयं अपनी समस्याओं से ग्रस्त हूं। आपकी सेवा करने मेरे पास वक्त नहीं है। अपना उपचार कराने स्वयं कोई प्रबंध कर लीजिये।
पितामह हैरान रह गये- जिसका पक्ष लिया आज वह मुंह मोड़कर चला गया। उनकी तकलीफ बढ़ती गई। तभी वहां अर्जुन आये। उन्होंने चिकित्सक बुलाया। पितामह का उपचार कराया। उनकी सेवा सुश्रुषा में दिनरात लगा रहा। पितामह का स्वास्थ्य लगातार सुधरता गया। उन्होंने अर्जुन की प्रशंसा की- मैंने तुम्हारे विरूद्ध कार्य किया। दुर्योधन का पक्ष लिया मगर इस रूग्णावथा में मेरी सहायता नहीं की। तुम्हें पराया समझा पर मुझे स्वस्थ कराने में तत्परता दिखाई। अब अधिक जीने की आशा जागी है।
तभी वहां पत्रकार नारद आये। वे पितामह की बातों को सुनकर आश्चर्य में डूब गये। कहा- अर्जुन आप शत्रु है। उन्होंने आपका बहुत नुकसान किया। पर आपने सहायता मांगी। उन्होंने भी आपकी भरपूर सेवा की?
पितामह ने स्पष्ट किया- मनुष्य जब तक शक्तिमान है वह मित्र या शत्रु बनता है। भेद करता है। किसी को तुच्छ किसी को श्रेष्ठ समझता है। अर्जुन पूर्व का शत्रु है मगर आज मेरा हितैषी है। मैं इसका गुणगान करके आनंदित हो रहा हूं।
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