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सोमवार, 2 जनवरी 2017

कैकैयी का अंतर्व्‍दन्‍द

      नूतन प्रसाद

   
प्रत्येक मां पिता की अभिलाषा होती है कि मेरी संतान का हर क्षेत्र में विजय हो। सम्पन्न हो - सुखी हो। उसका भविष्य उज्जवल हो।
     इसका मुख्य कारण यह है कि वह संतान वृद्धावस्था में पालक की सेवा करेगा। बीमार पड़ने पर उपचार करायेगा। यह अपेक्षा बिल्कुल न्याय संगत है।
     राम का अयोध्या का राजा बनना निश्चित हो गया था - दशरथ के साथ नगरवासियों की बड़ी इच्छा थी कि राम ही अयोध्या का शासक बने।
     कैकेयी ने राम को बड़े  स्नेह से - दुलार से पाला था। उसे राम से कोई दुर्भावना नहीं थी। वह राम की छोटी मां जो ठहरी।
     मगर अपने पुत्र भरत के सुखद भविष्य के लिये चिंतित हो गई। वह दशरथ के पास गई। पूछा - '' आपका भरत के प्रति क्या विचार है ?''
     दशरथ ने कहा - '' बड़ा ही होनहार और योग्य है। उसका हृदय निर्मल जल - सा स्वच्छ है। अयोध्यावासी उसकी प्रशंसा करते हैं।''
     कैकेयी ने टोंका - '' जब आप और नगरवासी भरत को हर दृष्टि से योग्य समझते हैं तो उसे ही राजा बना दीजिये।''
     दशरथ सन्न रह गये। कहा - '' राम को राजा बनाने की तिथि घोषित हो गयी है। इसे बदलने पर जनाक्रोश भड़क जायेगा।''
    कैकेयी - '' राम को राजा बनाने का नियम आपने बनाया है तो इस नियम को आप बदल भी सकते हैं। आपके निर्णय को प्रजा स्वीकार करेगी।''
    दशरथ गंभीर हो गये। कैकेयी ने पुन: कहा- '' राम और भरत में कोई भेद नहीं है। भरत को राजगद्दी पर बैठा देखेगा तो राम अधिक प्रसन्न होगा। वह भरत को लक्ष्मण से अधिक स्नेह देता है।''
    दशरथ ने पूछा - '' अगर भरत को सत्ता न दूं तो ?''
    मैं समझूंगी - '' आप भरत से दुर्भावना रखते हैं।''
   राम को राजा बनाते तो कैकेयी उलाहना देती। भरत को राजा बनाते तो प्रजा विरोध में मौन जुलूस निकालती। अंतत: दशरथ ने राम को अयोध्या से निष्कासित कर दिया। उनके साथ सीता और लक्ष्मण भी चले गये। राम से बिछड़ने के कारण दशरथ हृदयाघात के शिकार हो गये। उनकी मृत्यु हो गयी।
     भरत ननिहाल से लौटे । नगरवासी उन्हें व्यंग्य नज़रों से देखने लगे। भरत ने पूछा - '' क्यों भाइयों, मुझे पहले नहीं देखा कि अभी तीक्ष्ण नज़रों से देख रहे हो ? ''
   नगरवासी ने कहा - '' पहले आप हमारे जैसे साधारण - मनुष्य थे। अब राजा हैं। सामान्य से विशिष्ठ है आपका सम्मान करना ही होगा।''
    भरत हतप्रभ रह गये। पूछा - '' मुझे किसने राजा बनाया - कब और क्यों बनाया ?''
    आपके पिता दशरथ ने बनाया। आपकी माता की मांग के कारण उन्हें झुकना पड़ा। लेकिन वे आपको सिंहासन पर बैठा देख नहीं सके। उनकी मृत्यु हो गई।''
- '' क्या । तुम सच कह रहे हो ?''
- '' अपनी मां से पूछ लो।''
    भरत चिंता में डूबे कैकेयी के पास गये। बोले - '' मां मैं क्या सुन रहा हूं - आपने मुझे राजा बनाने की मांग रखी। उसे पिता जी ने स्वीकार कर लिया।''
    कैकेयी ने प्रफुल्लित होकर कहा - '' हां भरत, मैंने एक ममता मयी मां की भूमिका निभाई है। हर मां अपने पुत्र को उत्तरोत्तर बढ़ते देखना चाहती है। मैं भी तुम्हें अयोध्या के सिंहासन पर बैठाकर गौरवान्वित होना चाहती हूं।''   
   भरत ने टोंका - '' पर मैं इस पद के अयोग्य मानता हूं। मुझे बड़ी मां कौशिल्या और पारिवारिक सदस्यों से इतना स्नेह मिला कि राजनीति दांव पेंच समझ नहीं पाया। राजा को साम दाम दण्ड - भेद नामक विद्या का ज्ञान होना चाहिये। बड़े भैया राम राजा बनने के योग्य हैं। इसका परिचय उन्होंने पूर्व में ही दे दिया है -  उन्होंने सुबाहू तड़ाका और मारीच जैसे आतंकियों को मारा है। वे स्वभाव से शांत और गंभीर हैं। उनमें लोगो की आलोचनाओं को सहन करने का अपार क्षमता है। उन्हें अयोध्या ने पहले ही चयन कर लिया है। वे सबके दिलों में अभी भी राजा के रूप में विद्यमान है। अगर मैं उनकी इच्छा के विरूद्ध सिंहासन पर बैठा तो बगावत हो जायेगी। राजधानी अशांत हो जायेगी।''
     भरत ने पुन: कहा - '' वृद्धों का सहारा पुत्र ही होता है। आपने भावी सुख के लिये मुझे उच्चासन पर बिठाने की चेष्टा की जायज है। मगर मेरे सामने अनेक संकट है। मैं शासन से दूर रहूंगा।''
     भरत घर छोड़ कर जाने लगे। कैकेयी उदास हो गयी। कहा - '' तुम मुझे अकेली छोड़कर जा रहे हो। अर्थात मेरी मांग गलत थी। मेरा प्रयास व्यर्थ था ?''
    भरत ने सांत्वना दी - '' नहीं मां। तुम्हारी सोच सर्वथा उचित है। मगर हम दोनों एक स्थान पर रहेंगे तो लांछन आयेगा कि राम के निष्कासन में दोनों की सहमति थी। यद्यपि भरत ने परोक्ष रूप से राजा बनने की इच्छा व्यक्त नहीं किया पर अंर्तस्थल में अयोध्या का मुखिया बनने की चाहत थी। एक स्थल में रहने पर मैं तुम्हें दोष दूंगा कि राम को वनवास भेजकर गलत किया। मुझे पद लोलुप समझा। तुम मेरी आलोचना करोगी कि मैंने भरत के भविष्य के लिये सुख वैभव की कामना की पर यह मेरी ही अवहेलना कर गया। हम दोनों का अलग रास्ते पर चलना ही समस्या का निदान है।''
     भरत चले गये। कैकेयी के साथ सिर्फ मंथरा थी। वह चेरी दासी सहेली सहयोगी सब कुछ थी।
     सुमंत ने राम को चित्र कुट तक पहुंचाया। वह लौटा। कैकेयी ने थरथराते ओठों से पूछा - '' अभी राम कहां हैं। क्या खाया -  क्या पिया। सीता और लक्ष्मण कैसे हैं ? सुमंत ने सरल शब्दों में कहा - '' राम जहां हैं - सानंद हैं। खाना पीना क्या- जो मिला सो खा लिया। अयोध्या नहीं कि मनपसंद भोजन किया ... आप खाइये न मन पसंद भोजन। स्वादिष्ट व्यंजन। आप रानी हैं। सूखे मेवे हैं। ताजा फल हैं। मिठाइयां हैं। खाइये जी भर।''
     सुमंत को राम से बिछोह का गम था अत: न चाहते हुए भी कष्ट दायक शब्द निकल पड़े। ये शब्द कैकेयी के हृदय में तीर बनकर घुसे और घाव कर गये। वह स्वयं को अपराधिनी मानकर गुम - सुम रहने लगी।
      एक दिन वह न जाने कैसे कौशिल्या के पास पहुंच गई। कौशिल्या, दशरथ का चित्र देख रही थी। कैकेयी ने कहा -'' दीदी, राजा जी दशरथ सुखी - सुखी थे। स्वस्थ थे। पर मेरी गलत मांग से बेचैन हो गये। इसी कारण उनकी मृत्यु हो गई। मैं कुलक्षिणी हूं।''
      कौशिल्या ने कैकेयी के दोनों बाहों को पकड़ा। स्नेहिल शब्दों से ढाढस बंधाया - '' नहीं बहन, तुम अपने ऊपर लांछन मत डालो। यह मृत्यु लोक है। युवा हो। बलवान हो। वृद्ध हो सबको किसी भी समय इस संसार को छोड़ना पड़ता है। हम शत्रुभाव से दूसरों पर दोष मढ़ते हैं।''
      कैकेयी को कुछ शांति मिली। कहा - '' आपको राम लक्ष्मण की याद आती होगी। दोनों का स्वभाव निश्छल है।''
   कौशिल्या - '' राम कुछ दिनों के लिये गया है -  सदा के लिये नहीं। भरत मेरी देख- भाल कर रहा है - मेरी तबीयत जरा सी खराब हुई कि दवाईयां लाता है, अपने आगे बिठाकर खिलाता है। खाने की इच्छा नहीं होती तो भी जिद्द करके रोटी मुंह में डाल देता है। बड़ा ही प्यारा है तुम्हारा भरत।''
     कैकेयी ने सोचा था कि कौशिल्या उसे उलाहना देगी। अपमानित शब्दों से वार करेगी मगर कौशिल्या ने अपनी छोटी बहन को मीठी वाणी से सांत्वना ही दिया। कैकेयी अपने निवास आ गई।
      उधर राम सीता और लक्ष्मण पंचवटी में वार्तालाप में मगन थे। वहां मोर हिरण और खरगोश कुलांचे भर रहे थे। पेड़ पौधों से छनकर स्वच्छ हवाएं आ रही थीं। अपने कानों में दौना पान खोंचा था। उनका सुगंध मन को प्रफुल्लित कर रहा था। वेणी मेें गेंदा फूल सजे थे। मुख पर खूबसूरत दिखने का कोई लेप नहीं था। निर्मल स्वरूप आकर्षित कर रहा था। सीता ने उनका रूप देखा तो मुग्ध हो गई।
     युवकों के शरीर पर नाम मात्र के कपड़े थे। मगर उनके शरीर बलिष्ठ व तेजवान थे। ऐसी चमक की तेल का मालिस किये हों। लक्ष्मण ने अपने नगरीय युवकों के सम्बन्ध में सोचा कि वे खूबसूरत दिखने कृत्रिम प्रसाधन का स्तेमाल करते हैं पर चेहरे पर वास्तविक चमक नहीं दिखती। थके हारे लगते हैं। वनवासी चले गये।
      राम ने लक्ष्मण से पूछा - '' क्या वास्तव में छोटी मां ने वनवास का दण्ड दिया है। क्या इस वन में हमें तकलीफ हैं, या दुखी हैं ?''
    लक्ष्मण ने तपाक से कहा - '' सच कहूं भ्‍ौया - मैं यहीं प्रश्न आपसे करना चाहता था पर आपने मेरे मुंह से छीन लिया। वास्तव में छोटी मां ने हम पर उपकार किया है - नगरीय जन- जीवन अस्त व्यस्त और भा - गम - भाग से परिपूर्ण। वाहनों की कर्कश आवाजें। एक -  दूसरे को धकेल कर बढ़ने की जल्दबाजी। लोगों की भीड़ - एक  - दूसरे से आत्मीय संबंध नहीं। बनावट हंसी सिर्फ दिखावा। सघन बस्तियां गंदगी से अंटी पड़ी। गलियों में पैदल चलना मुश्किल। अभी मित्र है पर स्वार्थ पूर्ति के लिये कुछ पश्चात दुश्मन।''
    राम ने समर्थन किया -'' हां लक्ष्मण, तुम सही हो। राजनीतिक उठा- पटक है। एक दूसरे को बदनाम करने की साजिश। पर- हित का प्रचारक निजी स्वार्थ पूर्ति के लिये प्रयत्नशील है। अंग-दान का प्रचारक अंगों का व्यापार में लिप्त।''
    सीता ने राम की छीन ली। कहा - '' मायके और ससुराल में दासियों और सखियों से घिरी रहती थी। हीरे का आभूषण निकला कि सोने का पहनों। यह लुगड़ा बदरंग है दूसरा बदलो। मैं उच्च स्तरीय जीवन से ऊब गई थी.... यहां का वातावरण अत्यंत सुहावन है। कोई दासी नहीं, सेविका नहीं। सारे काम स्वत: करती हूं। अनेक प्रकार के वन- फूल हैं। कान और वेणी में सजा लूंगी।''
     कैकेयी का समय कठिनाई से कट रहा था। मंथरा भोजन पकाती। मगर कैकेयी भोजन करना भूल जाती। कहती कि मैने पेट भर खा लिया है। रात को सपने में देखा कि राम सीता और लक्ष्मण के पास बिछौना नहीं हैं। वे जमीन पर पड़े हैं। सपना गायब हो गया। कैकेयी चिंतित हो गई - यहां महल में गद्दों पर सोते थे। रथ पर चढ़ने वाले पैदल चलते होंगे। सीता के पैर कोमल हैं। कंकड़ पर पैर पड़ते ही खून निकलता होगा। रात मुश्किल से कटी। वह अनिद्रा की शिकार हो गई।
     एक दिन उसने सुना कि राम की जय हो। दीपक सजाओ। फूल मालायें गूंथो। खुशियां मनाओ। कैकेयी ने मंथरा से पूछा - '' क्या बात है - बहुत शोर है। किसका आगमन - किसका जयगान ?''
    मंथरा प्रसन्नता से झूम उठी - '' राम सीता और लक्ष्मण आ रहें हैं। उनके आगमन से अयोध्या में खुशियां छाई हैं। आप भी इस सत्कार में भाग लीजिये।''
     कैकेयी धक्क रह गयी। उसके मुंह से खुशी के शब्द नहीं निकले। वह भय से कांपने लगी - '' मैंने राम को चौदह वर्षों के वनवास का दण्ड  दिलवाया है। अब वह मुझसे प्रतिशोध लेगा। मुझे पापिनी - चण्डालिनी कहेगा। लोगों की सभा के बीच मुझे अपमानित करेगा।
     कुछ पश्चात मंथरा ने बताया कि राम का नगर में प्रवेश हो चुका है। कैकेयी शंका में डूब गयी - राम अब कौशिल्या के पास जायेगा। वह मां और पुत्र खुशियां बाटेंगे। मेरी बुराई होगी। राम कहेगा कि हमने छोटी मां कैकेयी के शत्रु भाव के कारण तुमसे दूर रहें। वन में अनेक कष्ट सहे हैं।''
     मंथरा ने बताया कि राम आगे बढ़ गये हैं वह अपनी मां के पास गये ही नहीं। कैकेयी सूखे पत्ते - सी कांपने लगी - राम अब भरत के पास जायेगा। मेरी गल्ती कि लिये भरत बड़े भाई से क्षमा मांगेगा। राम मुख से कुछ नहीं कहेगा मगर अंर्तहृदय में मुझसे बैर जरूर रखेगा।
      तभी मंथरा हांफती हुई आई। जोर देकर चिल्लाई - '' रानी,अब क्या होगा - राम तुम्हारे पास आ रहें हैं।'' कैकेयी का कंठ सूख गया। पूछने की शक्ति खत्म। वह एक कमरे से दूसरे कमरे में छुपने दौड़ने लगी। राम आये। उनके मुख पर शिकायत का भाव नहीं था। '' प्रभु जानेइ कैकेयी लजानी  - प्रथम तासु गृह गयेउ भवानी।'' उन्होंने आवाज लगायी - '' मां''
    कैकेयी ने सुना। मगर असमंजस थी कि आवाज मधुर है सा कर्कश ? राम ने पुन: नम्र शब्दों में पुकारा - '' मां तुम कहां हो - तुम्हारा पुत्र राम भेंट करने आया है।''
     कैकेयी सामने आयी। वह अपनी भूल का क्षमा मांगना चाहती थी कि राम ने लुभावन शब्दों में कहा - '' मैंने गंगा मां के दर्शन किये। वन का माहौल आनंनदायी था। हनुमान ने हमारी और सुग्रीव की मित्रता करायी।''
     कैकेयी अब सामान्य स्थिति में आ गयी थी। कहा - '' मैंने तुम्हें वन जाने कहा था - यह मेरी गल्ती थी ?''
     राम ने तत्काल काटा - '' नहीं मां। आपने बन जाने के लिये भेजा। बिगड़ जाने के लिये नहीं। काशी के संत छोटे लाल के सुविचार और बताऊं - हमने लंका विजय किया पर वहां निवास करने की इच्छा नहीं हुई। मुझे आपकी - अपने जन्म- भूमि अयोध्या की बहुत याद आई तो मैं चला। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
      कैकेयी के सारे संताप दूर हो गये। वह अपराधी भाव से ग्रस्त थी पर राम के सद्भाव ने सारी शंकाएं - पीड़ायें दूर कर दी। उसने सबके सामने राम के आदर्शों का गुणगान करने लगी - '' राम कथा सुंदर करतारी-संसय विहंगम उड़ावन हारी।''

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