नूतन प्रसाद
वह प्रख्यात कवि था। उसकी कविताओं को सुनने श्रोता उमड़ पड़ते।
कवि को कविता पाठ के लिये निमंत्रण मिला। वह चला। रात्रि हो गई। चंद्रमा का उदय हुआ। कवि ने चंदा का गुण गान करना प्रारंभ कर दिया - '' तुमने गहन अंधेरे को चीर कर प्रकाश फैलाया है। शीतलता की सारी थकानें मिट गईं। मुझे रास्ता दिखा रहे हो। मैं तुम्हारा आभारी हूं।''
रात्रि बीत गई। प्रात: हुआ। कवि ने चंद्रमा की निंदा प्रारंभ कर दी - '' देखो,चंद्रमा के तन पर दाग है। भादो की चतुर्थी को उसे मत देखना। इस पर कलंक लगा है '' तजहु चौथ चंदा की नाई '' यह डूब रहा है अत: इसकी वंदना मत करो।''
चंद्रमा हैरान रह गया। रात भर मैंने इसकी सहायता की तब इोन कविता में प्रशंसा की। स्वार्थ सिद्ध हो गया। अब यह मेरी बुराई कर रहा है ....चंद्रमा शांत रहा।
अब आकाश में सूर्य चमकने लगा। कवि ने सूर्य की व्रदना प्रारंभ की - '' तुममें अंधेरे को भगाकर प्रकाश लाने का अदम्य साहस है। तुम्हें सूर्य पुराण अर्पित है। तुम आते हो तब कमल फूलता है। प्राणी अपने कार्यों में लग जाते हैं।
सूर्य अपनी प्रशंसा सुनकर गदगद था। संध्या होने लगी। पश्चिम में सूर्य जाने लगा। कवि ने चेतावनी दी - '' देखो सूर्य के तेज रोशनी से बड़ी तकलीफ हुई है। फूल मुरझा गये। अब वह डूबने वाला है। उसकी वंदना मत करना।''
सूर्य अचंभित रह गया। कवि पर क्रोधित हुआ - '' कृतघ्न कवि, तु सुन। जिस सीधे सरल चंद्रमा की खिल्ली उड़ाई। वह महा दानी और उपकारी है। वह दूसरों से वस्तु प्रकाश उधार लेकर दूसरों को बांटता है ... मगर मैं सूर्य हूं। सूर्य कभी डूबता नहीं। वह कभी थकता नहीं। अपने कर्तव्य पथ पर लगातार चलते रहता है। अभी मैंने इधर प्रकाश बांटा अब दूसरी ओर उनकी मांगो की पूर्ति करने जा रहा हूं। मैं समता सिद्धांत का पालन करता हूं .... और तुम अपनी ही प्रजाति मनुष्यों के बीच शत्रुता पैदा कराते हो। अपने काव्य में एक को नायक कहकर उसकी पूजा कराते हो। दूसरे को खलनायक बनाकर उसकी निंदा करते हो। एक काक शोषक - दूसरे को शोषित। एक को श्रेष्ठ और दूसरे को हेय। मानव समाज में भेद की गहरी खाई है वह तुम्हारे साहित्य की देन है।
कवि अपने को सर्वज्ञाता समझता था। लेकिन सूर्य के सत्य उदघाटन से उसकी बोलती बंद हो गई। वह प्रकृति और प्राणियों के संबंध में नया खोजने निकल पड़ा।
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