छत्‍तीसगढ़ी महाकाव्‍य ( गरीबा ) के प्रथम रचनाकार श्री नूतन प्रसाद शर्मा की अन्‍य रचनाएं पढ़े

सोमवार, 2 जनवरी 2017

गुरूवे नम:

  नूतन प्रसाद

     संदिपनि के विद्यालय में कृष्ण सुदामा और अन्य छात्र अध्ययन रत थे। एक दिन कृष्ण के बाल सखा तनसुखा उनसे भेंट करने आये।
     उसने देखा कि कृष्ण शाला में झाड़ू  लगा रहे हैं। पानी ला कर घड़ों में भर रहे हैं। तभी संदीपनि ने कृष्ण को पुकार लगाई - '' चूल्हा जलाने लकड़ियों की आवश्यकता है। पास के जंगल में जाओ। लकड़ियाँ काटकर लाओ।''
    कृष्ण ने कुल्हाड़ी उठाई। जंगल की ओर चले गये। कुछ समय पश्चात कृष्ण कंधे पर लकड़ियां लेकर लौटे। उन्हें नीचे रखा। तनसुखा ने देखा कि उनके हाथों में फफोले पड़ गये हैं। शरीर पसीने से तरबतर है।
    तनसुखा हांफता हुआ नंद बाबा के पास गया। कहा - '' गजब हो गया। आपने कन्हैया को शिक्षित होकर विद्वान बनने भेजा है पर वे वहां झाड़ू लगा रहे हैं। पानी ला रहे हैं।''
  नंद बाबा ने कहा- '' यह तो श्रेष्ठ शिक्षा है। अगर कन्हैया झाड़ू  लगाता है तो वह स्वच्छता के प्रति जागरूक रहेगा। दूसरों को रोगों से बचने रास्ता दिखायेगा।''   तनसुखा ने कहा- '' गुरू जी बड़े निर्दयी हैं। उन्होंने कन्हैया को लकड़ियां काटकर मंगवाया। उनके हाथों में फफोले पड़ गये हैं।''
    नंद बाबा ने कहा - '' यह तो गुरू जी की बड़ी कृपा है। वे छात्रों को श्रम शिक्षा देते हैं। इससे छात्रों का लाभ होगा। उनका शरीर बलिष्ठ व स्वस्थ रहेगा। वे अपने श्रम से राष्ट्र का नवनिर्माण करेंगे .... गुरू जी ने डांट लगाई इससे सहनशक्ति में वृद्धि होगी। कष्ट के समय धैर्य बनाये रखेंगे।''
     तनसुखा ने अपना माथा पीट लिया। कहा -  '' मैं गुरू जी की आलोचना कर रहा हूं पर आप उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। शाला समीति के सदस्यों को लेकर गुरू जी को चेतावनी देना था पर आप वंदना कर रहे हैं।''
    नंद बाबा ने कहा - '' गुरू जी छात्रों का श्रेष्ठ भविष्य गढ़ते हैं। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है।''
  तनसुखा चला गया। उसकी बातों का ग्रामीणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
    इन्द्र का सम्मान घटने लगा था। उसने गोकुल वासियों को दण्ड देने पानी बरसाने लगा। लोग कृष्ण के पास दौड़े। कहा - '' अब गो- कुल के नर नारी और पशु की मृत्यु निश्चित है। वर्षा के कारण पूरा क्षेत्र डूबने वाला है। इस कष्ट से हमें बचाइये।''
    कृष्ण ने कहा - '' इस कष्ट से बचने का एकमात्र उपाय गोबरधन पहाड़  को ऊपर उठाया जाय। लेकिन सिर्फ मेरे वश की बात नहीं है। इसमें तुम्हारा भी सहयोग चाहिये।''
    कृष्ण की सलाह उचित थी। उनकी अगुवाई में गोवर्धन को ऊपर उठाया गया। उसके नीचे मनुष्य और पशु सुरक्षित बच गये। अंतत: इन्द्र को अपनी हार स्वीकारनी पड़ी।
   संदीपनि ग्रंथों का पाठ कर रहे थे। उनके पास नंद बाबा आये। हाथ जोड़ कर कहा - '' गुरूदेव, आप की कृपा और आर्शिवाद से हमारे कन्हैया ने गोवर्धन को उठाया। ग्रामीणों के प्राणों की रक्षा की।''
   संदीपनि अवाक रह गये। बोले - '' मैंने कब कृपा की- कब आर्शिवाद दिया ? मेरी और कृष्ण की बहुत दिनों से भेंट नहीं हुई है ?''
   नंद बाबा ने कहा - '' आपने कन्हैया से लकड़ियां कटवा कर श्रम शिक्षा दी। पसीना का महत्व बताया। इसके कारण कन्हैया ने पहाड़ को उठाने जैसा कठिन कार्य को पूरा करने में सफलता पाई। आपने उसे डांटा-  फटकार लगाई इससे उसमें सहनशीलता आई है। उसकी कोई आलोचना या निंदा करता है तो मुस्कुराकर टाल देता है।''
    वास्तव में गुरू जी के आदर्शवादी सिद्धांतों का कृष्ण के जीवन पर गहरा असर पड़ा। शिशुपाल के निन्यानबे ( 99 ) गालियां देने पर भी वे धैर्य पूर्वक स्वीकारते रहें।

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